पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६९

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योगप्रदीप
 

अतिरिक्त बुद्धिके जो सामान्य दोष हैं वे तो हैं ही–अर्थात् बोधपूर्वक ग्रहण करने और स्थिर और प्रबुद्ध होकर विशुद्ध विवेक करनेके बजाय शुष्क संशयकी ओर झुकना; उसका यह गरूर कि जो बातें उसके परे हैं, उससे अज्ञात हैं, जो इतनी गूढ़ हैं कि उसके मर्यादित अति संकुचित अनुभवसे प्राप्त मान या नापसे नापी नहीं जा सकतीं उन्हींके सम्बन्धमें निर्णय करने चलना; उसकी यह चेष्टा कि जो बात जडातीत है उसे भौतिक मानसे निरूपित करना; अथवा उसका यह तकाजा कि जो बातें परम ज्ञानकी हैं, गुह्य हैं उन्हें जड-पदार्थ और जड-पदार्थगत मन-बुद्धिको कसनेकी कसौटीपर कसकर दिखा दो; इनके सिवाय और भी बुद्धिके इतने दोष हैं कि सब यहाँ नहीं गिनाये जा सकते। सदा ही यह इसी काममें लगी रहती है कि सच्चा ज्ञान तो एक तरफ रह जाता है, यह अपने ही प्रतीक, अपनी ही कल्पनाएँ और अपने ही मत उसके स्थानमें उपस्थित किया करती है। परन्तु बुद्धि यदि समर्पित हो, भगवान्की ओर खुल जाय, अस्थिरता त्याग कर भगवत्प्रकाश ग्रहण करनेवाली बने तो कोई कारण नहीं है कि बुद्धि वह साधन न बने जिससे भगवत्प्रकाश ग्रहण किया जाय, जिससे आध्यात्मिक अवस्थाओंको अनुभव करनेमें तथा आन्तरिक रूपान्तरको पूर्ण करनेमें सहायता मिले।

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