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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

परा और परतरा शक्ति तथा परा प्रकृतिके क्षेत्रको नीचे ला सकती है और यदि साधनाका वैसा लक्ष्य हो तो उतनी पात्रता सिद्ध होनेपर विज्ञानकी शक्ति और सत्ताको भी नीचे ला सकती है। इसका साधन, इस साधनमें साहाय्य और इस साधनका संवर्द्धन, यह सब, हृच्चक्रस्थित हृत्पुरुषके कार्यसे होता है; जितना ही अधिक इसका उद्घाटन होता है, जितना ही अधिक यह आगेको आकर कर्ममें युक्त होता है, उतना ही शीघ्र और निश्शङ्क तथा अनायास भागवत शक्तिका यह कार्य हो सकता है। हृदयमें जितना ही अधिक प्रेम और भक्ति और शरणागति- का भाव उदय होता है, उतना ही शीघ्र और पूर्ण साधनाका विकास होता है। कारण, अवतरण और दिव्यीकरणके क्रममें श्रीभगवान्के साथ सतत संवर्द्धनशील सम्पर्क और तादात्म्य होता ही है।

यही इस साधनाकी मूल मीमांसा है। इससे यह स्पष्ट हो जायगा कि यहाँ जो सबसे मुख्य दो बातें हैं वे ये ही हैं कि एक तो हृच्चक्र खुल जाय; और दूसरी बात, मनबुद्धिके पीछे और ऊपर जो कुछ है उसकी ओर मनबुद्धिके चक्र खुल जायँ। कारण हृच्चक्र हृत्पुरुषकी ओर खुलता है और मनबुद्धिके चक्र परचैतन्यकी ओर खुलते हैं और हृत्पुरुष तथा परचैतन्यके बीच जो

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