पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/८२

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

ज्योति, विशालता या शक्तिका कुछ ऐसे ढङ्गसे उद्घाटन होता है कि कैसे क्या होता है यह समझ नहीं पड़ता, उसमें अवतरणका कोई क्रम या भाव नहीं होता, या अकस्मात् विश्वचैतन्यमें प्रवेश करानेवाला दिगन्त-सा व्यापक उद्घाटन हो जाता है अथवा एकाएक बुद्धि फैल जाती है और उसमें ज्ञान उमड़ आता है। इस प्रकार जो कुछ भी आवे उसका स्वागत करना चाहिये―क्योंकि सबके लिये कोई एक ही नियम नहीं है―परन्तु यदि शान्ति पहले नहीं आती है तो इस बातकी सावधानी रखनी होगी कि मारे हर्षके फूल न जाय या फूलकर अपना समत्व न खो दे। भागवत शक्तिके अवतरणकी मुख्य गति, अवश्य ही, तब समझनी चाहिये जब भागवत शक्ति―मातृशक्ति नीचे उतरती और निम्न चैतन्यको अधिकृत करती है; क्योंकि तभी चैतन्यका सङ्घटन-कार्य आरम्भ होता और योगकी विस्तृत नींव दी जाती है।

ध्यानका परिणाम प्रायः तुरत नहीं होता―यद्यपि कुछ साधकोंकी साधना अति शीघ्र और अकस्मात्-सी कुसुमित हो जाती है; पर बहुतोंको अनुकूल बननेमें या तत्पर होनेकी तैयारीमें थोड़ा-बहुत समय लगता ही है, खासकर ऐसी अवस्थामें जबकि अभीप्सा तथा

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