पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/९५

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योगप्रदीप निरन्तर यह अनुभव कर सकोगे कि कर्म जो हो रहा है उसे माताकी शक्ति ही कर रही है और तुम केवल एक निमित्त या करणमात्र हो, तब स्मरणके स्थानमें कर्ममें योग अर्थात् भगवान्से मिलनका अपने-आप सतत अनुभव होना आरम्भ होगा।

जिस कर्मसे अध्यात्मतः शुद्धि होती है वह कर्म तो केवल वही कर्म है जो निर्हेतुक होकर किया जाता है; जिसमें प्रसिद्धि या मान्यता अथवा लोकप्रतिष्ठाकी कोई इच्छा नहीं होती; जिसमें अपने मनोरथों, प्राणगत लालसाओं या भौतिक अभिरुचिका कोई आग्रह नहीं होता; जिसमें कोई अतिमान या अहंमन्यता या अपनी मान- प्रतिष्ठाका कोई दावा नहीं होता; जो केवल भगवान्के लिये भगवान्की ही आज्ञासे किया जाता है । अहंभावके साथ जो कोई भी काम किया जाता है वह अज्ञानी जगत् के लोगोंके लिये चाहे कितना भी अच्छा हो, योगके साधकके लिये किसी भी कामका नहीं है। साधारण जीवनका जो कर्म होता है वह अपने ही किसी उद्देश्य और अपनी ही किसी इच्छाको पूर्तिके लिये किसी बौद्धिक या नैतिक नियमकी अधीनतामें और कभी-कभी [८४]