पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/९६

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कर्म किसी बौद्धिक आदर्शसे भी संस्पृष्ट हुआ, होता है । गीताके योगमें कर्मका ब्रह्मार्पण, वासनाजय, निरहङ्कार और निष्काम कर्म, भगवानकी अनन्य भक्ति, विश्वचैतन्यसे युक्त होना, सब प्राणियों में एकत्वबुद्धि, और भगवान के साथ एकात्मता है। हमारे इस योगमें इन सब बातोंके साथ विशेष बात विज्ञानज्योति और शक्तिका अवतरण और प्रकृतिका दिव्यीकरण है।

आत्मसमर्पण किसी विशिष्ट कर्मके करनेपर निर्भर नहीं करता, बल्कि उस भावपर निर्भर करता है जिससे कोई भी कर्म किया जाता है, फिर वह कर्म चाहे किसी भी प्रकारका हो। जो कोई भी कर्म श्री- भगवान्को समर्पित करनेके लिये,कुशलता और सावधानीके साथ, वासना और अहङ्कारसे रहित होकर, समबुद्धिसे तथा इष्टानिष्ट उपपत्तिमें स्थिर शान्तिके साथ, भगवान्के लिये ही किया जाता है, किसी वैयक्तिक लाभ, पुरस्कार या फलके लिये नहीं बल्कि इस बुद्धिसे किया जाता है कि कर्ममात्र ही भागवत शक्तिका है, वही कर्म, कर्मके द्वारा, आत्मसमर्पणका साधन होता है । कोई भी साधारणसे साधारण केवल शारीरिक या [ ८५ ]