जॉन सेवक—“कहिए मुंशीजी, मालूम होता है, आपको बहुत चोट आई। मुझे इसका बड़ा दुःख है।"
ताहिर—"हुजूर, कुछ न पूछिए, कंबख्तों ने मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।"
जॉन सेवक—"और इन्हीं दुष्टों की आप मुझसे सिफारिश कर रहे थे।"
ताहिर—"हुजूर, अपनी खता की बहुत सजा पा चुका। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मेरी गरदन की हड्डी पर जरब आ गया है।”
जॉन सेवक—"यह आपकी भूल है। हड्डी टूट जाना कोई मामूली बात नहीं है। आप यहाँ तक किसी तरह न आ सकते थे। चोट जरूर आई है, मगर दो-चार रोज मालिश कर लेने से आराम हो जायगा। आखिर यह मारपीट हुई क्यों?"
ताहिर—“हुजूर, यह सब उसी शैतान बजरंगी अहीर की हरकत है।"
जॉन सेवक—"मगर चोट खा जाने ही से आप निरपराध नहीं हो सकते। मैं इसे आपकी नादानी और असावधानी समझता हूँ। आप ऐसे आदमियों से उलझे ही क्यों?
आपको मालूम है, इसमें मेरी कितनी बदनामी है?"
ताहिर—"मेरी तरफ से ज्यादती तो नहीं हुई।"
जॉन सेवक—"जरूर हुई, वरना देहातों के आदमी किसी से छेड़कर लड़न नहीं आते। आपको इस तरह रहना चाहिए कि लोगों पर आपका रोब रहे। यह नहीं कि छोटे-छोटे आदमियों को आपसे मार-पीट करने की हिम्मत हो।"
मिसेज सेवक—"कुछ नहीं, यह सब इनकी कमजोरी है। कोई राह चलते किसी को नहीं मारता।"
ईश्वर सेवक कुरसी पर पड़े-पड़े बोले-"खुदा के बेटे, मुझे अपने साये में ले, सच्च दिल से उसकी बंदगी न करने की यही सजा है।"
ताहिरअली को ये बातें घाव पर नमक के समान लगी। ऐसा क्रोध आया कि इमी वक्त कह दूँ, जहन्नुम में जाय तुम्हारी नौकरी; पर जान सेवक को उनकी दुरवस्था से लाभ उठाने की एक युक्ति सूझ गई। फिटन तैयार कराई और ताहिरअली को लिये हुए राजा महेंद्रकुमार के मकान पर जा पहुँचे। राजा साहब शहर का गश्त लगाकर मकान पर पहुँचे ही थे कि जॉन सेवक का कार्ड पहुँचा। अदाला ये, लेकिन शील आ गया, बाहर निकल आये। मिस्टर सेवक ने कहा-श्रमा कीजिएगा, आपको कुसमय कष्ट हुआ; किंतु पाँडेपुरवालों ने इतना उपद्रव मचा रखा है कि मेरी समझ में नहीं आता, आपके सिवा किसका दामन पकड़ूँ। कल सयों ने मिलकर गोदाम पर धावा कर दिया। शायद आग लगा देना चाहते थे, पर आग तो न लगा सके हाँ, यह मेरे एजेंट है, सब-के-सब इन पर टूट पड़े। इनको और इनके भाइयों को मारते-मारते बेदम कर दिया। इतने पर भी उन्हें तस्कीन न हुई, जनाने मकान में घुस गये; और अगर स्त्रियाँ अन्दर से द्वार न बन्द कर लें, तो उनकी आबरू बिगड़ने में कोई संदेह न था।