सभी में समान रूप से अभ्यस्त था, और गाने में तो आस-पास के कई मुहल्लों में उसका जबाब न था। ठुमरी-गजल से उसे रुचि न थी। कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि सन्तों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्र-हीन मुख अति आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते-गाते मस्त हो जाता, तन-बदन की सुधि न रहती। सारी चिन्ताएँ, सारे क्लेश भक्ति सागर में विलीन हो जाते थे।
सूरदास मिट्ठू को लिये हुए पहुँचा, तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गये थे, केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा-"तुमने बड़ी देर कर दी, आध घण्टे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। "क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ माँगकर खिला दिया करते।”
दयागिरि--"यहाँ चला आया करे, तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाय।"
सूरदास-"तुम्हीं लोगों का दिया खाता है, या और किसी का? मैं तो बनाने-भर को हूँ।"
जगधर-"लड़कों को इतना सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते हो, जैसे नन्हाँ-सा बालक हो। मेरा विद्याधर इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।"
सूरदास-"बिना माँ-बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हाँ, क्या होगा?"
दयागिरि-"पहले रामायण की एक चौपाई हो जाय।”
लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले। सुर मिला, और आध घंटे तक रामायण हुई।
नायकराम-“वाह सूरदास, वाह! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।"
बजरंगी--"मेरी तो कोई दोनों आँखें ले ले, और यह हुनर मुझे दे दे, तो मैं खुशी से बदल लूँ।"
जगधर—"अभी भैरो नहीं आया, उसके बिना रंग नहीं जमता।"
बजरंगी—"ताड़ी बेचता होगा। पैसे का लोभ बुरा होता है। घर में एक मेहरिया है, और एक बुढ़िया माँ। मुदा रात-दिन हाय-हाय पड़ी रहती है। काम करने को तो दिन है ही, भला रात को तो भगवान् का भजन हो जाय।"
जगधर—"सूरे का दम उखड़ जाता है, उसका दम नहीं उखड़ता।"
बजरंगी—"तुम अपना खोंचा बेचो, तुम्हें क्या मालूम, दम किसे कहते हैं। सूरदास जितना दम बाँधते हैं, उतना दूसरा बाँधे, तो कलेजा फट जाय। हँसी-खेल नहीं है।"
जगधर—"अच्छा भैया, सूरदास के बराबर दुनिया में कोई दम नहीं बाँध सकता। अब खुश हुए?"
सूरदास—"भैया, इसमें झगड़ा काहे का? मैं कब कहता हूँ कि मुझे गाना आता है। तुम लोगों का हुक्म पाकर, जैसा भला-बुरा बनता है, सुना देता हूँ।"
इतने में भैरो भी आकर बैठ गया। बजरंगी ने व्यंग्य करके कहा—“क्या अब कोई ताड़ी पीनेवाला नहीं था? इतनी जल्दी क्यों दूकान बढ़ा दी?"