ठाकुरदीन-"मालूम नहीं, हाथ-पैर भी धोये हैं या वहाँ से सीधे ठाकुरजी के मंदिर में चले आये। अब सफाई तो कहीं रह ही नहीं गई।"
भैरो-"क्या मेरी देह में ताड़ी पुती हुई है?"
ठाकुरदीन-"भगवान् के दरबार में इस तरह न आना चाहिए। जात चाहे ऊँची हो या नीची; पर सफाई चाहिए जरूर।”
भैरो-“तुम यहाँ नित्य नहाकर आते हो?”
ठाकुरदीन-"पान बेचना कोई नीच काम नहीं है।"
भैरो-"जैसे पान, वैसे ताड़ी। पान बेचना कोई ऊँचा काम नहीं है।"
ठाकुरदीन-"पान भगवान् के भोग के साथ रखा जाता है। बड़े-बड़े जनेऊधारी मेरे हाथ का पान खाते हैं। तुम्हारे हाथ का तो कोई पानी नहीं पीता।"
नायकराम-"ठाकुरदीन, यह बात तो तुमने बड़ी खरी कही। सच तो है, पासी से कोई घड़ा तक नहीं छुआता।"
भैरो-"हमारी दूकान पर एक दिन आकर बैठ जाओ, तो दिखा दूँ, कैसे-कैसे धर्मात्मा और तिलकधारी आते हैं। जोगी-जती लोगों को भी किसी ने पान खाते देखा है। ताड़ी, गाँजा, चरस पीते चाहे जब देख लो। एक-से-एक महात्मा आकर खुशामद करते हैं।"
नायकराम-"ठाकुरदीन, अब इसका जवाब दो। भैरो पढ़ा-लिखा होता, तो वकीलों के कान काटता।"
भैरो-"मैं तो बात सच्ची कहता हूँ, जैसे ताड़ी वैसे पान; बल्कि परात की ताड़ी को तो लोग दवा की तरह पीते हैं।"
जगधर-“यारो, दो-एक भजन होने दो। मान क्यों नहीं जाते ठाकुरदीन? तुम्ही हारे, भैरो जीता, चलो छुट्टी हुई।"
नायकराम—"वाह, हार क्यों मान लें। सासतरार्थ है कि दिल्लगी। हाँ ठाकुरदीन, कोई जवाब सोच निकालो।"
ठाकुरदीन—"मेरी दूकान पर खड़े हो जाओ, जो खुश हो जाता है। केवड़े और गुलाब की सुगन्ध उड़ती है। इसकी दूकान पर कोई खड़ा हो जाय, तो बदबू के मारे नाक फटने लगती है। खड़ा नहीं रहा जाता। परनाले में भी इतनी दुर्गन्ध नहीं होती।"
बजरंगी—“मुझे तो घंटे-भर के लिये राज मिल जाता, तो सबसे पहले शहर-भर की ताड़ी की दूकानों में आग लगवा देता।"
नायकराम—"अब बताओ भैरो, इसका जवाब दो। दुर्गन्ध तो सचमुच उड़ती है, है कोई जवाब?”
भैरो—"जवाब एक नहीं, सैकड़ों हैं। पान सड़ जाता है, तो कोई मिट्टी के मोल भी नहीं पूछता। यहाँ ताड़ी जितनी ही सड़ती है, उतना ही उसका मोल बढ़ता है। सिरका बन जाता है, तो रुपये बोतल बिकता है, और बडे-बड़े जनेऊधारी लोग खाते हैं।"