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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२०

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रंगभूमि

नायकराम-"क्या बात कही है कि जी खुश हो गया। मेरा अख्तियार होता, तो इसी घड़ी तुमको वकालत की सनद दे देता। ठाकुरदीन, अब हार मान जाओ, भैरो से पेश न पा सकोगे।"

जगधर-"भैरो, तुम चुप क्यों नहीं हो जाते? पंडाजी को तो जानते हो, दूसरों को लड़ाकर तमाशा देखना इनका काम है। इतना कह देने में कौन-सी मरजादा घटी जाती है कि बाबा, तुम जीते और मैं हारा।"

भैरो--"क्यों इतना कह दूँ? बात करने में किसी से कम हूँ क्या?"

जगधर---"तो ठाकुरदीन, तुम्हीं चुप हो जाओ।"

ठाकुरदीन-"हाँ जी, चुप न हो जाऊँगा, तो क्या करूँगा। यहाँ आये थे कि कुछ भजन-कीर्तन होगा, सो व्यर्थ का झगड़ा करने लगे। पंडाजी को क्या, इन्हें तो बेहाथ-पैर हिलाये अमिर्तियाँ और लड्डु खाने को मिलते हैं, इन्हें इसी तरह की दिल्लगी सूझती है। यहाँ तो पहर रात से उठकर फिर चक्की में जुतना है।"

जगधर-"मेरी तो अबकी भगवान् से भेंट होगी, तो कहूँगा, किसी पंडे के घर जनम देना।”

नायकराम-"भैया, मुझ पर हाथ न उठाओ, दुबला-पतला आदमी हूँ। मैं तो चाहता हूँ, जल-पान के लिये तुम्हारे ही खोंचे से मिठाइयाँ लिया करूँ, मगर उस पर इतनी मक्खियाँ उड़ती हैं, ऊपर इतना मैल जमा रहता है कि खाने को जी नहीं चाहता।"

जगधर-(चिढ़कर)"तुम्हारे न लेने से मेरी मिठाइयाँ सड़ तो नहीं जातीं कि भूखों मरता हूँ? दिन-भर में रुपया-बीस आने पैसे बना ही लेता हूँ। जिस संत-मेत में रसगुल्ले मिल जायँ, वह मेरी मिठाइयाँ क्यों लेगा?"

ठाकुरदीन-"पंडाजी की आमदनी का कोई ठिकाना है, जितना रोज मिल जाय, थोड़ा ही है; ऊपर से भोजन घाते में। कोई आँख का अन्धा, गाँठ का पूरा फँस गया; तो हाथी-घोड़े, जगह-जमीन, सब दे गया। ऐसा भागवान् और कौन होगा?"

दयागिरि-“कहीं नहीं ठाकुरदीन, अपनी मेहनत की कमाई सबसे अच्छी। पंडों को यात्रियों के पीछे दौड़ते नहीं देखा है?"

नायकराम-"बाबा, अगर कोई कमाई पसीने की है, तो वह हमारी कमाई है। हमारी कमाई का हाल बजरंगी से पूछो।"

बजरंगी-"औरों की कमाई पसीने की होती होगी, तुम्हारी कमाई तो खून की है। और लोग पसीना बहाते हैं, तुम खून बहाते हो। एक-एक जजमान के पीछे लोह की नदी बह जाती है। जो लोग खोचा सामने रखकर दिन-भर मक्खी मारा करते हैं। वे क्या जानें, तुम्हारी कमाई कैसी होती है? एक दिन मोरचा थामना पड़े, तो भागने को जगह न मिले।”

जगधर-"चलो भी, आये हो मुँहदेखी कहने, सेर-भर दूध के ढाई सेर बनाते