हो, उस पर भगवान् के भगत बनते हो।”
बजरंगी-“अगर कोई माई का लाल मेरे दूध में एक बूंद पानी निकाल दे, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यहाँ दूध में पानी मिलाना गऊ-हत्या समझते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचें, और भोले-भाले बच्चों को ठगें।"
जगधर-“अच्छा भाई, तुम जीते, मैं हारा। तुम सच्चे, तुम्हारा दूध सच्चा। बस, हम खराब, हमारी मिठाइयाँ खराब। चलो छुट्टी हुई।”
बजरंगी-“मेरे मिजाज को तुम नहीं जानते, चेता देता हूँ। पद कहकर कोई सौ जूते मार ले, लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है।"
भैरो-"बजरंगी, बहुत बढ़कर बातें न करो, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने से कुछ नहीं होता। बस, मुँह न खुलवाओ, मैंने भी तुम्हारे यहाँ का दूध पिया है। उससे तो मेरी ताड़ी ही अच्छी।"
ठाकुरदीन-"भाई, मुँह से जो चाहे ईमानदार बन ले; पर अब दूध सपना हो गया। सारा दूध जल जाता है, मलाई का नाम नहीं। दूध जब मिलता था, तब मिलता था, एक आँच में अंगुल-भर मोटी मलाई पड़ जाती थी।"
दयागिरि-“बच्चा, अभी अच्छा-बुरा कुछ मिल तो जाता है। वे दिन आ रहे हैं कि दूध आँखों में आँजने को भी न मिलेगा।"
भैरो-"हाल तो यह है कि घरवाली सेर के तीन सेर बनाती है, उस पर दावा यह कि हम सच्चा माल बेचते हैं। सच्चा माल बेचो, तो दिवाला निकल जाय। यह ठाट एक दिन न चले।"
बजरंगी-“पसीने की कमाई खानेवालों का दिवाला नहीं निकलता; दिवाला उनका निकलता है, जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे पड़ते हैं। भाग को सराहो कि सहर में हो; किसी गाँव में होते, तो मुँह में मक्खियाँ आती-जातीं। मैं तो उन सबों को पापी समझता हूँ, जो औने-पौने करके, इधर का सौदा उधर बेचकर, अपना पेट पालते हैं। सच्ची कमाई उन्हीं की है, जो छाती फाड़कर धरती से धन निकालते हैं।”
बजरंगी ने बात तो कही, लेकिन लजित हुआ। इस लपेट में वहाँ के सभी आदमी आ जाते थे। वह भैरो, जगधर और ठाकुरदीन को लक्ष्य करना चाहता था, पर सूरदास, नायकराम, दयागिरि, सभी पापियों की श्रेणी में आ गये।
नायकराम—"तब तो भैया, तुम हमें भी ले बीते। एक पापी तो मैं ही हूँ कि सारे दिन मटरगस्त करता हूँ, और वह भोजन करता हूँ कि बड़ों-बड़ों को मयस्सर न हो।"
ठाकुरदीन—“दूसरा पापी मैं हूँ कि शौक की चीज बेचकर रोटियाँ कमाता हूँ। संसार में तमोली न रहें, तो किसका नुकसान होगा?"
जगधर—"तीसरा पापी मैं हूँ कि दिन-भर औन-पौन करता रहता हूँ। सेव और खुमें खाने को न मिले, तो कोई मर न जायगा।"