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रंगभूमि

सोफी—"क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन है, कुछ ऐसे खुले हुए, निद्वंद्व मनुष्य हो कि में तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँ, जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली ठहनी पर पैर रखते डरता है।"

प्रभु सेवक—"अच्छी बात है, यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँ, तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँ, मुझे चैन ही नहीं आता। खैर, मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहा; पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैं; पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़ हो गई है। बैठे सौंठ की तरह सुनते रहे, मानों मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगी, पर विनय-जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें, तो खूब लिखें। उनका रोम-रोम काव्यमय है।'

सोफी—"तुम इधर कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गये थे?"

प्रभु सेवक—"आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्ति में पड़ गये हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।"

सोफिया के मुख पर क्रोध या शोक का कोई चिह्न न दिखाई दिया। उसने यह न पूछा, क्यों गिरफ्तार हुए? क्या अपराध था? ये सब बातें उसने अनुमान कर ली। केवल इतना पूछा— "रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैं?"

प्रभु सेवक—"न! कुँवर साहब और डॉक्टर गंगुली, दोनों जाने को तैयार हैं; पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैं, विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।"

सोफिया थोड़ी देर तक गंभीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चयात्मक भाव से बोली_"मैं उदयपुर जाऊँगी।"

प्रभु सेवक—"वहाँ जाकर क्या करोगी?"

सोफी—"यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगी, तो कम-से-कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगी, अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया है, चाहे किसी इरादे से किया हो, वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दुःख हुआ होगा, उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्त विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्त करूँगी; किसी और उपाय से नहीं, तो अपने प्राणों ही से।"