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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२८२

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रंगभूमि

नायकराम--"सरकार, हुकुम हो, तो सिर देने को हाजिर हैं। ऐसी क्या बात है भला?"

कुँवर-“देखा, दुनियादारी मत करो। मैं जो काम लेना चाहता हूँ, वह सहज नहीं। बहुत समय, बहुत बुद्धि, बहुत बल व्यय करना पड़ेगा। जान-जोखिम भी है। अगर दिल इतना मजबूत हो, तो हामी भरो, नहीं लो साफ-साफ जवाब दे दो, मैं कोई यात्री नहीं कि तुम्हें अपनी धाक बिठाना जरूरी हो। मैं तुम्हें जानता हूँ और तुम मुझे जानते हो। इसलिए साफ बातचीत होनी चाहिए।"

नायकराम—"सरकार, आपसे दुनियादारी करके भगवान को क्या मुँह दिखाऊँगा! आपका नमक तो रोम-रोम में सना हुआ है। अगर मेरे काबू की बात होगी, तो पूरी करूँगा, चाहे जान ही पर क्यों न आ बने। आपके हुकुम देने की देर है।"

कुँवर—"विनय को छुड़ाकर ला सकते हो?"

नायकराम—"दीनबंधु, अंगर प्राण देकर भी ला सकूँगा, तो उठा न रखूँगा।"

कुँवर—"तुम जानते हो, मैंने तुमसे यह सवाल क्यों किया! मेरे यहाँ सैकड़ों आदमी हैं। खुद डॉक्टर गंगुली जाने को तैयार हैं। महेंद्र को भेज दूँ, तो वह भी चले जायँगे। लेकिन इन लोगों के सामने मैं अपनी बात नहीं छोड़ना चाहता। सिर पर यह इलजाम नहीं लेना चाहता कि कहते कुछ हैं, और करते कुछ। धर्म-संकट में पड़ा हुआ हूँ। पर बेटे की मुहब्बत नहीं मानती। हूँ तो आदमी, काठ का कलेजा तो नहीं है? कैसे सब करूँ? उसे बड़े-बड़े अरमानों से पाला है, वही एक जिंदगी का सहारा है। तुम उसे किसी तरह अपने साथ लाओ। उदयपुर के अमले और कर्मचारी देवता नहीं, उन्हें लालच देकर जेल में जा सकते हो, विनयसिंह से मिल सकते हो, अमलों की मदद से उन्हें बाहर ला सकते हो, यह कुछ कठिन नहीं। कठिन है विनय को आने पर राजी करना। वह तुम्हारी बुद्धि और चतुरता पर छोड़ता हूँ। अगर तुम मेरी दशा का ज्ञान उन्हें करा सकोगे, तो मुझे विश्वास है, वह चले आयेंगे। बोलो, कर सकते हो काम? इसका मेहनताना एक बूढ़े बाप के आशीर्वाद के साथ और जो कुछ चाहोगे, पेश करूँगा।”

नायकराम—"महाराज, कल चला जाऊँगा। भगवान ने चाहा, तो उन्हें साथ लाऊँगा, नहीं तो फिर मुँह न दिखाऊँगा।"

कुँवर—"नहीं पण्डाजी, जब उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं कितना विकल हूँ, तो वह चले आयेंगे; वह अपने बाप की जान को सिद्धान्त पर बलिदान न करेंगे। उनके लिए मैंने अपने जीवन की कायापलट कर दी, यह फकीरी भेष धारण किया, क्या बह मेरे लिए इतना भी न करेंगे! पण्डाजी, सोचो, जिस आदमी ने हमेशा मखमली बिछौनों। पर आराम किया हो, उसे इस काठ के तख्त पर आराम मिल सकता है? विनय का प्रेम ही वह मन्त्र है, जिसके वश होकर मैं यह कठिन तपस्या कर रहा हूँ। जब विनय ने त्याग का व्रत ले लिया, तो मैं किस मुँह से बुढ़ापे में भोग-विलास में लिप्त रहता। आह!