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रंगभूमि


न होते, तो मुझे कितने कष्ट झेलने पड़ते। वह स्वभाव के मितभाषी, संकोचशील, गंभीर आदमी थे, उनमें वह शासन-बुद्धि न थी, जो जनता पर आतंक जमा लेती है, न वह मधुर वाणी, जो मन को मोहती है। ऐसी दशा में नायकराम का संग उनके लिए दैवी सहायता से कम न था।

रास्ते में कभी-कभी हिंसक जंतुओं से मुठभेड़ हो जाती। ऐसे अवसरों पर नायकराम सीनासिपर हो जाता था। एक दिन चलते-चलते दोपहर हो गया। दूर तक आबादी का कोई निशान न था। धूप की प्रखरता से एक-एक पग चलना मुश्किल था। कोई कुआँ या तालाब भी नजर न आता था। सहसा एक ऊँचा टीकरा दिखाई दिया। नायकराम उस पर चढ़ गया कि शायद ऊपर से कोई गाँव या कुआँ दिखाई दे। उसने शिखर पर पहुँचकर इधर-उधर निगाहें दौड़ाई, तो दूर पर एक आदमी जाता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में एक लकड़ी और पीठ पर एक थैली थी। कोई बिना वर्दी का सिपाही मालूम होता था। नायकराम ने उसे कई बार जोर-जोर से पुकारा, तो उसने गरदन फेरकर -देखा। नायकराम उसे पहचान गये। यह विनयसिंह के साथ का एक स्वयंसेवक था। उसे इशारे से बुलाया और टोले से उतरकर उसके पास आये। इस सेवक का नाम इंद्रदत्त था।

इंद्रदत्त ने पूछा— "तुम यहाँ कैसे आ फँसे जी १ तुम्हारे कुँवर कह हैं?"

नायकराम—“पहले यह बताओ कि यहाँ कोई गाँव भी है, कहीं दाना-पानी मिल सकता है?"

इंद्रदत्त—"जिसके रामधनी, उसे कौन कमी! क्या राजदरबार ने भोजन की रसद नहीं लगाई? तेली से ब्याह करके तेल का रोना!”

नायकराम—"क्या करूँ भाई, बुरा फँस गया हूँ, न रहते बनता है, न जाते।”

इंद्रदत्त—"उनके साथ तुम भी अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो। कहाँ हैं आजकल?"

नायकराम—"क्या करोगे?"

इंद्रदत्त—"कुछ नहीं, जरा मिलना चाहता था।"

नायकराम—“हैं तो वह भी। यहीं भेंट हो जायगी। थैली में कुछ है?"यों बातें करते हुए दोनों विनयसिंह के पास पहुँचे। विनय ने इंद्रदत्त को देखा, तो शत्रु-भाव से बोला—"इंद्रदत्त, तुम कहाँ? घर क्यों नहीं गये?"

इंद्रदत्त—"आपसे मिलने की बड़ी आकांक्षा थी। आपसे कितनी ही बातें करनी हैं। पहले यह बतलाइए कि आपने यह चोला क्यों बदला?"

नायकराम—“पहले तुम अपनी थैली में से कुछ निकालो, फिर बातें होंगी।"

विनयसिंह अपनी कायापलट का समर्थन करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बोले—"इसलिए कि मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। मैं पहले समझता था कि प्रजा बड़ी सहनशील और शांतिप्रिय है। अब ज्ञात हुआ कि वह नीच और कुटिल है। उसे