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रंगभूमि

विनय—"यह मुझे नहीं मालूम था। मगर मान लो, मैंने अन्याय ही किये, तो क्या मुझे तुम्हारे हाथों यह दंड मिलना चाहिए? इसका भय मुझे माताजी से था, तुमसे न था। आह सोफी! इस प्रेम का यों अंत न होने दो, यों मेरे जीवन का सर्वनाश न करो। उसी प्रेम के नाते, जो कभी तुम्हें मुझसे था, मुझ पर यह अन्याय न करो। यह वेदना मेरे लिए असह्य है। तुम्हें विश्वास न आयेगा, क्योंकि इस समय तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से पत्थर हो गया है, पर यह आघात मेरे लिए प्राणघातक होगा और अगर मृत्यु के पश्चात् भी कोई जीवन है, तो उस जीवन में भी यही वेदना मेरे हृदय को तड़पाती रहेगी। सोफी, मैं मौत से नहीं डरता, भाले की नोक को हृदय में ले सकता हूँ, पर तुम्हारी यह निष्ठुर दृष्टि, तुम्हारा यह निर्दय आघात मेरे अंतस्तल को छेदे डालता है। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि तुम मुझे विष दे दो। मैं उस प्याले को आँखें बंद करके यों पी जाऊँगा, जैसे कोई भक्त चरणामृत पी जाता है। मुझे यह संतोष हो जायगा कि ये प्राण, जो तुम्हें भेंट कर चुका था, तुम्हारे काम आ गये।"

ये प्रेम-उच्छखल शब्द कदाचित् और किसी समय विनय के मुँह से न निकलते, कदाचित् इन्हें फिर स्मरण करके उन्हें आश्चर्य होता कि ये वाक्य कैसे मेरे मुख से निकले, पर इस समय भावोद्गार ने उन्हें प्रगल्भ बना दिया था। सोफी उदासीन भाव से सिर झुकाये खड़ी रही। तब बेदरदी से बोली-“विनय, मैं तुमसे याचना करती हूँ, ऐसी बातें न करो। मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति अभी जो कुछ आदर रह गया है, उसे भी पैरों से न कुचलो; क्योंकि मैं जानती हूँ, ये शब्द तुम्हारे अंतःकरण से नहीं निकल रहे हैं। इसके विरुद्ध तुम इस समय सोच रहे हो कि क्योंकर इससे इस तिरस्कार का बदला लू। मुझे आश्चर्य होगा, अगर सूर्योदय के समय यह स्थान खुफिया पुलिस के सिपाहियों का विहारस्थल न बन जाय, यहाँ के रहनेवाले हिरासत में न ले लिये जायँ और उन्हें प्राण-दंड न दे दिया जाय। मेरे दंड के लिए तुमने कोई और ही युक्ति सोच रखी होगी। उसके रूप की मैं कल्पना नहीं कर सकती, लेकिन इतना कह सकती हूँ कि अगर मेरी निंदा करके, मेरे आचरण पर आक्षेप करके, तुम मुझे शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचा सकोगे, तो तुम्हें उसमें लेश-मात्र भी विलंब न होगा। संभव है, मेरा यह अनुमान अन्याय-पूर्ण हो, पर मैं इसे दिल से नहीं निकाल सकती। कोई ऐसी विभूति, कोई ऐसी सिद्धि नहीं, जो तुम्हें फिर मेरा सम्मानपात्र बना सके। जिसके हाथ रक्त से रँगे हुए हों, उसके लिए मेरे हृदय में स्थान नहीं। यह न समझो कि मुझे इन बातों से दुःख नहीं हो रहा है। एक-एक शब्द मेरे हृदय को आरे की भाँति चीरे डालता है। यह भी न समझो कि तुम्हें हृदय से निकालकर मैं फिर किसी दूसरी मूर्ति को यहाँ मर्यादित करूँगी, हालाँकि तुम्हारे मन में यह दुष्कल्पना हो, तो मुझे कुतूहल न होगा। नहीं, यही मेरी प्रथम और अन्तिम प्रेम-प्रदक्षिणा है। अब यह जीवन किसी दूसरे ही मार्ग का अवलंबन करेगा, कौन जाने, ईश्वर ने मुझे कर्तव्य पथ से विचलित होने का तुम्हारे हाथों यह दण्ड दिलाया हो। तुम्हारे लिए मैंने वह सब कुछ