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रंगभूमि


किया, जो न करना चाहिए था। छल, कपट, कौशल, माया, त्रिया चरित्र, एक से भी बाज नहीं आई; क्योंकि मेरी सरल दृष्टि में तुम एक दिव्य, निष्काम, पवित्र आत्मा थे। तुम अन्दाजा नहीं कर सकते कि मि० क्लार्क के साथ आने में मुझे कितनी आत्मवेदना सहनी पड़ी। मैंने समझा था, तुम मेरे जीवन मार्ग के दीपक बनोगे, मेरे जीवन को सुधारोगे, सँवारोगे, सफल बनाओगे। आखिर मुझमें कौन-सा ऐसा गुण है, जिस पर तुम रीझे हुए हो? अगर सौन्दर्य के इच्छुक हो; तो संसार में सौन्दर्य का अभाव नहीं, तुम्हें मुझसे कहीं रूपवती कन्या मिल सकती है। अगर मेरे वचन कर्ण-मधुर लगते हैं, तो तुम्हें मुझसे कहीं मृदुभाषिणी स्त्रियाँ मिल सकती हैं। निराश होने की कोई बात नहीं। जल्द या देर में तुम्हें अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार कोई रमणी मिल जायगी, जिसके साथ तुम अपने ऐश्वर्य और वैभव का आनन्द उठा सकोगे, क्योंकि सेवक बनने की क्षमता तुममें नहीं है, और न हो सकती है। मेरा चित्त तो भूलकर भी प्रणय की ओर आँख उठाकर न देखेगा। मैं अब फिर यह रोग न पालूँगी। तुमने मुझे संसार से विरक्त कर दिया, मेरी भोग-तृष्णा को शान्त कर दिया। धार्मिक ग्रंथों के निरन्तर पढ़ने से जो मार्ग न मिला, वह नैराश्य ने दिखा दिया। इसके लिए मैं तुम्हारी अनुगृहीत हूँ। धर्म और सत्य की सेवा करके कौन-सा रत्न पाया? अधम। अब अधम की सेवा करूँगी। जानते हो, क्या करूँगी? उन पापियों से खून का बदला लूँगी, जिन्होंने प्रजा की गरदन पर छुरियाँ चलाई हैं। एक-एक को जहन्नुम की आग में झोंक दूंगी, तब मेरी आत्मा तृप्त होगी। जो लोग आज निरपराधियों की हत्या करके सम्मान और कीर्ति का उपभोग कर रहे हैं, उन्हें नरक के अग्निकुंड में जलाऊँगी, और जब तक अत्याचारियों के इस जत्थे का मूलोछेद न कर दूंगी, चैन न लूंगी, चाहे इस अनुष्ठान में मुझे प्राणों ही से क्यों न हाथ धोना पड़े, चाहे रियासत में विप्लव ही क्यों न हो जाय, चाहे रियासत का निशान ही क्यों न मिट जाय! मेरे दिल में यह दुरुत्साह तुम्हीं ने पैदा किया है, और इसका इलजाम तुम्हारी ही गरदन पर है। ईसा की क्षमा और दया, बुद्ध के धैर्य और संयम, कृष्ण के प्रेम और वैराग्य की अमर कीर्तियाँ भी अब इस रक्त-पिपासा को नहीं बुझा सकतीं। बरसों का मनन और चिन्तन, विचार और स्वाध्याय तुम्हारे कुकर्मो की बदौलत निष्फल हो गया। बस, अब जाओ। मैं जो कुछ करूँगी, वह तुमसे कह चुकी। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह तुम करो। मैं आज से क्रान्तिकारियों के दल में जाती हूँ, तुम नुफिया पुलिस की शरण लो। जाओ, ईश्वर फिर हमें न मिलाये।"

यह कहकर सोफी ने थाल उठा लिया और चली गई, जैसे आशा हृदय से निकल जाय। विनय ने एक ठण्डी साँस ली, जो आर्त-ध्वनि से कम करुण न थी और जमीन पर बैठ गये, जैसे कोई हतभागिनी विधवा पति की मृत देह उठ जाने के बाद एक आह भरकर बैठ जाय।

तीनों आदमी, जो दूर खड़े थे, आकर विनय के पास खड़े हो गये। नायकसम ने कहा—"भैया, आज तो खूब-खूब बातें हुई! तुमने भी पकड़ पाया, तो इतने दिनों