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रंगभूमि


की कसर निकाल ली। आ गई पंजे में न? वह तो मैंने पहले ही कहा था, आसिक लोग बड़े चकमेंबाज होते हैं। पहले तो खूब आरती उतारी, दही-चावल का टीका लगाया। मेम हैं तो क्या, हम लोगों का तौर-तरीका जानती हैं। कब चलना तय हुआ? जल्दी चलो, मेरा भी घर बसे।"

विनय के नेत्र सजल थे, पर इस वाक्य पर हँस पड़े। बोले-"बस, अब देर नहीं, घर चिट्ठी लिख दो, तैयारी करें।"

नायकराम-"भैया, आनंद तो जब आये कि दोनों बरातें साथ ही निकलें।"

विनय-"हाँ जी, साथ ही निकलेंगी, पहले तुम्हारी पीछे मेरी।"

नायकराम-"ठाकुर, अब सवारी-सिकारी का इंतजाम करो, जिसमें हम लोग कल सबेरे ठंडे ठंडे निकल जायँ। यहाँ पालकी तो मिल जायगी न?"

वीरपाल-"सब इंतजाम हो जायगा। अब भोजन करके आराम कीजिए, देर हो गई।"

विनय-“यहाँ से जसवंतनगर कितनी दूर है?"

वीरपाल-"यह पूछकर क्या कीजिएगा?"

विनय-"मुझे इसी वक्त वहाँ पहुँचना चाहिए?"

वीरपाल-(सशंक होकर)"आप दिन-भर के थके-माँदे हैं, रास्ता खराब है।"

विनय-"कोई चिंता नहीं, चला जाऊँगा।"

नायकराम-"भैया, मिस साहब भी रहेंगी न, रात को कैसे चलोगे?"

विनय-"तुम तो सनक गये हो, मिस साहब मेरी कौन होती हैं, और मेरे साथ क्यों जाने लगीं? अगर आज मैं मर जाऊँ, तो शायद उनसे ज्यादा खुशी और किसी को न होगी। तुम्हें थकावट आ गई हो, तो आराम करो; पर मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता। मुझे काँटों को राह भी यहाँ की सेज से अधिक सुखकर होगी। आप लोगों में से कोई रास्ता दिखा सकता है?"

वीरपाल-"चलने को तो मैं खुद हाजिर हूँ, पर रास्ता अत्यंत भयानक है।" विनय-“कोई मुजायका नहीं। मुझे इसी वक्त पहुँचा दीजिए, और हो सके, तो आँखों पर पट्टी बाँध दीजिए। मुझे अब अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं रहा।"

वीरपाल-"भोजन तो कर लीजिए। इतना आतिथ्य तो स्वीकार कीजिए!"

विनय-"अगर मेरा आतिथ्य करना है, तो मुझे गोली मार दीजिए। इससे बढ़कर आप मेरा आतिथ्य नहीं कर सकते। मैंने आपका जितना अपकार किया है, यदि आपने उसका शतांश भी मेरे साथ किया होता, तो मुझे किसी प्रेरणा की जरूरत न पड़ती। मैं पिशाच हूँ, हत्यारा हूँ; पृथ्वी मेरे बोझ से जितनी जल्द हल्की हो जाय, उतना ही अच्छा है!"

नायकराम-“मालूम होता है, मिस साहब सचमुच फिरंट हो गई। मगर मैं कहे