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रंगभूमि


चला जाता था, लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधा आदमी, कहीं गिर पड़े तो, लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठो ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्य, निंदा, उपहास की गुंजाइश न थी। हाँ, सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते-"रुपये न लौटा देता, तो क्या करता। डरता होगा कि सुभागी एक दिन भैरो से कह ही देगी, मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गई? वाह! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। भैरो उसे रुपये-पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़िया है। सोचा होगा, रुपये उड़ा लूँ, मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जायगी, अपने पास कहाँ। कौन जाने, दोनों में पहले ही से साठ-गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिये हो, फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधे पेट के बड़े गहरे होते हैं, इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।"

इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुआ की।

परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपायें, न इतनी बुद्धि ही कि इन गुत्थियों को सुलझायें।, मनुष्य स्वभावतः क्रियाशील होते हैं, उनमें विवेचन-शक्ति कहाँ? सुभागी से बोलने-चालने, उसके साथ उठने-बैठने में किसी को आपत्ति न रही; न कोई उससे कुछ पूछता, न आवाजें कसता। हाँ, सूरदास की मान प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले-भर में उसकी धाक थी, लोगों का उसकी हैसियत से कहीं अधिक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसको गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगी, कोई विशेषता न रही।

किंतु भैरो के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलता, ताड़ी-सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक-वस्तु-विभाग के कर्मचारियों ने भैरो को निकाल देने को धमकी भी दी; पर उसने कहा, मुझे दूकान का डर नहीं, आप लोग जिसे चाहें, रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला, और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।

धीरे-धीरे भैरो को सूरदास ही से नहीं, मुहल्ले-भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धर्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता-“ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहे, जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकता है! कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुडैल आँखों में काजल लगाये फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी