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रंगभूमि

सूरदास—"तुमने मेरे साथ कौन-सी दुसमनी की? तुमने वही किया, जो तुम्हारा धरम था। मैं रात-भर हिरासत में बैठा यही सोचता रहा कि तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो, मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं की, तो मुझे मालूम हुआ कि तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं कर रहे हो। यही तुम्हारा धरम है। औरत के पीछे तो खून हो जाता है। तुमने नालिस हो कर दी, तो कौन बुरा काम किया! बस, अब तुमसे मेरी यही बिनती है कि जिस तरह कल भरी अदालत में पंचों ने मुझे निरपराध कह दिया, उसी तरह तुम भी मेरी ओर से अपना मन साफ कर लो। मेरी इससे भी बड़ी दुर्गत हो, अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई घाट किया हो। हाँ, मुछसे एक ही बात नहीं हो सकती। मैं सुभागी को अपने घर से निकाल नहीं सकता। डरता हूँ कि कोई आड़ न रहेगा, तो न जान उसकी क्या दसा हो। मेरे यहाँ रहेगो, तो कौन जाने कभी तुम्हीं उसे फिर रख लो।"

भैरो का मलिन हृदय इस आंतरिक निर्मलता से प्रतिबिंबित हो गया। आज पहली बार उसे सूरदास की नेकनीयती पर विश्वास हुआ। सोचा—"अगर इसका दिल साफ न होता, तो मुझसे ऐसी बातें क्यों करता? मेरा कोई डर तो इसे है नहीं। मैं जो कुछ कर सकता था, कर चुका। इसके साथ तो सारा सहर है। सबों ने जरोबाना अदा कर दिया। ऊपर से कई सौ रुपये और दे गये। मुहल्ले में भी इसकी धाक फिर बैठ गई। चाहे तो बात-की-बात में मुझे बिगाड़ सकता है। नीयत साफ न होती, तो अब सुभागी के साथ आराम से रहता। अंधा है, अपाहिज है, भीख माँगता है; पर उसकी कितनी मरजाद है, बड़े-बड़े आदमी आव-भगत करते हैं! मैं कितना अधम, नोच आदमी हूँ, पैसे के लिए रात-दिन दगा-फरेग करता रहता हूँ। कौन-सा पाप है, जो मैंने नहीं किया! इस बेचारे का घर जलाया, एक बार नहीं, दो बार; इसके रुपये उठा ले गया। यह मेरे साथ नेकी ही करता चला आता है। सुभागी के बारे में मुझे सक-हो-सक था। अगर कुछ नायत बद होती, तो इसका हाथ किसने पकड़ा था, सुभागी को खुले-खजाने रख लेता। अब तो अदालत-कचहरी का भी डर नहीं रहा।" यह सोचता हुआ वह सूरदास के पास आकर बोला-"सूरे, अब तक मैंने तुम्हारे साथ जो बुराई-भलाई की, उसे माफ करो। आज से अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई करूँ, तो भगवान मुझसे समझें। ये रुपये मुझे मत दो, मेरे पास रुपये हैं। ये भी तुम्हारे ही रुपये हैं। दूकान बनवा लूंगा। सुभागी पर भी मुझे अब कोई संदेह नहीं रहा। मैं भगवान को बीच में डालकर कहता हूँ, अब मैं कभी उसे कोई कड़ी बात तक न कहूँगा। मैं अब तक धोखे में पड़ा हुआ था। सुभागों को मेरे यहाँ आने पर राजी कर दो। वह तुम्हारो बात को नाहीं न करेगी।"

सूरदास—“राजी हो है, बस उसे यही डर है कि तुम फिर मारने-पीटने लगोगे।"

भैरो—“सूरे, अब मैं उसे भी पहचान गया। मैं उसके जोग नहीं था। उसका ब्याह तो किसी धर्मात्मा आदमी से होना चाहिए था। (धोरे से) आज तुमसे कहता हूँ, पहली बार भी मैंने ही तुम्हारे घर में आग लगाई थी और तुम्हारे रुपये चुराये थे।"

सूरदास—"उन बातों को भूल जाओ भैरो! मुझे सब मालूम है। संसार में कौन