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रंगभूमि

जैनब-"तुम्हारे अब्बा का लिहाज किया होगा; नहीं तो तीन साल से कम के लिए न जाते।"

माहिर—"खानदान में दाग लगा दिया। बुजुर्गों की आबरू खाक में मिला दी।"

जैनब—"नुदा न करे कि कोई मर्द औरत का कलमा पढ़े।"

इतने में मामा नाश्ते के लिए मिठाइयाँ लाई। माहिरअली ने एक मिटाई जाहिर को दी, एक जाबिर को। इन दोनों ने जाकर साबिर और नसीमा को दिखाई। वे दोनों भी दौड़े। जैनब ने कहा-“जाओ, खेलते क्यों नहीं! क्या सिर पर डट गये? न जाने कहाँ के मरभुखे छोकरे हैं। इन सबों के मारे कोई चीज मुँह में डालनी मुश्किल है। बला की तरह सिर पर सवार हो जाते हैं। रात-दिन खाते ही रहते हैं, फिर भी जी नहीं भरता।"

रकिया—"छिछोरी माँ के बच्चे और क्या होंगे!"

माहिर ने एक-एक मिठाई उन दोनों को भी दी। तब बोले-"अब गुजर-बसर की क्या सूरत होगी? भाभी के पास तो रुपये होंगे न?”

जैनव-"होंगे क्यों नहीं। इन्हीं रुपयों के लिए तो खसम को जेल भेजा। देखती हूँ, क्या इंतजाम करती हैं। यहाँ किसी को क्या गरज पड़ी है कि पूछने जाय।"

माहिर-"मुझे अभी न जाने कितने दिनों में जगह मिले। महीना-भर लग जाय, दो महीने लग जायँ। तब तक मुझे दिक मत करना।"

जैनब-"तुम इसका गम न करो बेटा! वह अपना सँभालें, हमारा भी खुदा हाफिज है। वह पुलाव खाकर सोयेंगी, तो हमें मी रूखी रोटियाँ मयस्सर हो ही जायँगी।"

जब शाम हो गई, तो जैनब ने मामा से कहा- “जाकर बेगम साहब से पूछो, कुछ सौदा-सुलफ आयेगा, या आज मातम मनाया जायगा।"

मामा ने लौट आकर कहा-"वह तो बैठी रो रही हैं। कहती हैं, जिसे भूख हो, खाय; मुझे नहीं खाना है।"

जैनब-"देखा! यह तो मैं पहले ही कहती थी कि साफ जवाब मिलेगा। जानती है कि लड़का परदेस से आया है, मगर पैसे न निकलेंगे। अपने और अपने बच्चों के लिए बाजार से खाना मँगवा लेगी, दूसरे खाये या मरें, उसकी बला से। खैर, उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहें, हमारा भी अल्लाह मालिक है।"

कुल्सुम ने जब से सुना था कि ताहिरअली को छ महीने की सजा हो गई, तभी से उसकी आँखों में अँधेरा-सा छाया हुआ था। मामा का संदेश सुना, तो जल उठी। बोली-“उनसे कह दो, पकायें-खाये, यहाँ भूख नहीं है। बच्चों पर रहम आये, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें।"

मामा ने इसी वाक्य का अन्वय किया था, जिसने अर्थ का अनर्थ कर दिया।

रात के नौ बज गये कुल्सूम देख रही थी कि चूल्हा गर्म है। मसाले की सुगंध