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रंगभूमि


हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई, या मेरी कोई बहन बिधवा हुई, तो मैं इस झोपड़ी में आग लगाकर जल मरूँगा।"

विनय ने नायकराम से कहा-"अब?"

नायकराम - "बात का धनी है; जो कहेगा, जरूर करेगा।"

विनय-"तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखो, उधर से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगे, हमें क्या करना चाहिए। अब चलो, अपने वीरों की सद्गति करें। ये हमारे कौमी शहीद हैं, इनका जनाजा धूम से निकलना चाहिए।"

नौ बजते-बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे। आगे-आगे इंद्रदत्त की अर्थी थी, पीछे-पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गये। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी, नंगे सिर, नंगे पाँव, सिर झुकाये, चले जाते थे। पग-पग पर समूह बढ़ता जाता था, चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिह्न न था, न किसी आँख में आँसू थे, न किसी कंठ से आर्तनाद की ध्वनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थे, आँखों में स्वदेशामिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चड़ा दी जाती, तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक-ध्वनि थी, न विजय-नाद था, अलौकिक निःस्तब्धता थी, भावमयी, प्रवाहमयी, उल्लासमयी!

रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह दृश्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्र रक्षकों का एक दल संगीनें चढ़ाये खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलीं, एक रमणी अंदर से निकलकर जन-प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थी, जो उसने स्वयं गूं थी थी। वह यह हार लिये हुए आगे बढ़ी और इंद्रदत्त की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले-"इंदु!” इंदु ने उनकी ओर जल-पूरित लोचनों से देखा, और कुछ न बोली-कुछ बोल न सकी।

गंगे! ऐसा प्रभावशाली दृश्य कदाचित् तुम्हारी आँखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े-बड़े वीरों को भस्म का ढेर होते देखा है, जो शेरों का मुँह फेर सकते थे, बड़े-बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी आँखों के सामने राख में मिल गये, जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थे, बड़े-बड़े प्रभुत्वशाली योद्धा यहाँ चिताग्नि में समा गये! कोई यश और कीर्ति का उपासक था, कोई राज्य विस्तार का, कोई मत्सर-ममत्व का कितने ज्ञानी, विरागी, योगी, पंडित तुम्हारी आँखों के सामने चितारूढ़ हो गये। सच कहना, कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद-पुलकित हुआ था? कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया था? अपने लिए सभी मरते हैं, कोई इह-लोक के लिए, कोई पर