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रंगभूमि

नायकराम-"बस भैया, मेरे मन की बात कही। ठीक यही बात है। हर तरह मरदों ही पर मार, राजी हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो उससे भी बड़ी मुसीबत!”

सोफिया-"जब औरत इतनी विपत्ति है, तो पुरुष क्यों उसे अपने सिर मढ़ते हैं। जिसे देखो, वही उसके पीछे दौड़ता है! क्या दुनिया के सभी पुरुष मूर्ख हैं, किसी को बुद्धि नहीं छू गई?"

नायकराम-"भैया, मिस साहब ने तो मेरे सामने पत्थर लुढ़का दिया। बात तो सच्ची है कि जब औरत इतनी बड़ी बिपत है, तो लोग क्यों उसके पीछे हैरान रहते हैं? एक की दुर्दशा देखकर दूसरा क्यों नहीं सीखता! बोलो भैया, है कुछ जवाब?"

विनय-"जवाब क्यों नहीं है, एक तो तुम्हीं ने मेरी दुर्दशा से सीख लिया। तुम्हारी भाँति और भी कितने ही पड़े होंगे।"

नायकराम-(हँसकर ) "भैया, तुमने फिर मेरे ही सिर डाल दिया। यह तो कुछ ठीक जवाब न बन पड़ा।"

विनय-"ठीक वही है, जो तुमने आते-ही-आते कहा था कि औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है।"

मनुष्य स्वभावतः विनोदशील है। ऐसी विडंबना में भी उसे हँसी सूझती है, फाँसी पर चढ़नेवाले मनुष्य भी हँसते देखे गये हैं। यहाँ ये ही बातें हो रही थीं कि मि० क्लार्क घोड़ा उछालते, आदमियों को हटाते, कुचलते आ पहुँचे! सोफी पर निगाह पड़ी। तीर-सा लगा। टोपी ऊपर उठाकर बोले-"यह वहो नाटक है, या कोई दूसरा शुरू कर दिया?"

नश्तर से भी तीव्र, पत्थर से भी कठोर, निर्दय वाक्य था। मि० क्लार्क ने अपने मनोगत नैराश्य, दुःख, अविश्वास और क्रोध को इन चार शब्दों में कूट-कूटकर भर दिया था।

सोफ़ी ने तत्क्षण उत्तर दिया-"नहीं, बिलकुल बया। तब जो मित्र थे, वे ही अब शत्रु हैं।"

क्लार्क व्यंग्य समझकर तिलतिला उठे। बोले -"यह तुम्हारा अन्याय है। मैं अपनी नीति से जौ-भर भी नहीं हटा।"

सोफी-"किसी को एक बार शरण देना और दूसरी बार उसी पर तलवार उठाना क्या एक ही बात है? जिस अंधे के लिए कल तुमने यहाँ के रईसों का विरोध किया था, बदनाम हुए थे, दंड भोगा था, उसी अंधे की गरदन पर तलवार चलाने के लिए आज राजपूताने से दौड़ आये हो। क्या दोनों एक ही बात है?"

क्लार्क-"हाँ मिस सेवक, दोनों एक ही बात है! हम यहाँ शासन करने के लिए आते हैं, अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं। जहाज से उतरते ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं, हमारा न्याय, हमारी सहृदयता, हमारी