जरा भी रुचि नहीं। वह सेवा का व्रत ले चुके हैं, और इतनी देर तक अपनी समिति की ही चर्चा करते रहे।"
जॉन सेवक-"क्या तुम्हें आशा है कि तुम्हारा यह परिचय चतारो के राजा साहब "पर भी कुछ असर डाल सकता है? विनयसिंह राजा साहब से हमारा कुछ काम निकलवा सकते हैं?"
प्रभु सेवक-"उनसे कहे कौन, मुझमें तो इतनी हिम्मत नहीं है। उन्हें आप स्वदेशानुरागी संन्यासी समझिए। मुझसे अपनी समिति में आने के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया है।"
जॉन सेवक-"शरीक हो गये न!"
प्रभु सेवक-"जी नहीं, कह आया हूँ कि सोचकर उत्तर दूँगा। बिना सोचे-समझे इतना कठिन व्रत क्योंकर धारण कर लेता।"
जॉन सेवक-"मगर सोचने-समझने में महीनों न लगा देना। दो-चार दिन में आकर नाम लिखा लेना। तब तुम्हें उनसे कुछ काम की बात करने का अधिकार हो जायगा। (स्त्री से) तुम्हारी रानीजी से कैसी निभी?"
मिसेज सेवक-"मुझे तो उनसे घणा हो गई। मैंने किसी में इतना घमंड नहीं देखा।"
प्रभु सेवक-"मामा, आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।"
मिसेज सेवक-"तुम्हारे लिए देवी होंगी, मेरे लिए तो नहीं हैं।"
जॉन सेवक-"यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है।
सोफी को क्यों नहीं लाई?"
मिसेज सेवक-"वह आये भी तो, या जबरन् घसीट लाती?"
जॉन सेवक-"आई नहीं, या रानी ने आने नहीं दिया?"
प्रभु सेवक-"वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाय।"
जॉन सेवक-"इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी!"
मिसेज सेवक-"हाँ, इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगी, तो मेरो बात माननी पड़ेगी।"
जॉन सेवक-"तुम दोनों में एक को भी बुद्धि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी हो, वह जिद्दी है। उसे मना-मनूकर जल्दी लाना चाहिए।"
प्रभु सेवक--"अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगी, तो शायद वह फिर घर न जाय।"
जॉन सेवक—"आखिर जायगी कहाँ?"
प्रभु सेवक—"उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।"