"कदाचित कम्यूनिस्ट सब बराबर हैं, इस कारण उनमें से कोई सभापति नहीं बनाया जा सकता!"
"नहीं, ऐसी बात तो नहीं!"
"तब फिर उन्हीं में से किसी को बना दीजिए।"
"इस योग्य यहाँ कोई है नहीं।"
"क्या कहा! कामरेडों में कोई सभापति बनने योग्य नहीं। यह आप अपनी ओर से कह रहे हैं या सब की सलाह से?"
"इस मामले में सलाह लेने की क्या आवश्यकता है।"
"बिना सलाह के आप सब कामरेडों को सभापतित्व की योग्यता से खारिज दिये दे रहे हैं?"
"जी हाँ! आप ऐसा ही समझ लीजिए। शीघ्रता कीजिए, बड़ा विलम्ब हो रहा है।"
अपनेराम ने देखा कि अब तो आ ही फँसे हैं, इसलिये सभापति बने बिना कल्याण नहीं। अतः अपनेराम ने स्वीकार कर लिया।
अपनेराम के लिए सभापति का प्रस्ताव होने पर अपनेराम सभा- पति के आसन पर विराजमान हो गये। मन्त्री जी ने बोलने वालों की सूची पेश की। कई नाम थे।
पहले एक महोदय ने एक कविता पढ़ी। उसमें यही कहा गया था कि ऐसे कुसमय में जबकि अन्न-वस्त्र मिलता नहीं--होली मनाना अनुचित है इस कविता पर खूब तालियाँ पिटीं। एक महोदय बोले- "इसे फिर से पढ़िये!"
अपनेराम ने कहा---'यदि आप कविता दो बार पढ़वायेंगे तो भाषण भी दो बार दिये जायेंगे।'
"भाषणों पर यह नियम लागू नहीं होता।" मन्त्री जी बोले।
"होना चाहिए! अन्यथा कम्यूनिस्ट सिद्धान्त ही बदल जायगा। सब को समान अधिकार मिलने चाहिये!"
"यदि अपनेराम के सभापतित्व में कोई श्रोता किसी भाषरण को