"आज मौसम बड़ा सुहावना है।"
"क्या बात है। पोने का लुत्फ तो इसी मौसम में है---'जाम ला साकिया फिर घिर के घटा आई है।" "इस मौसम में बड़े बड़ों की तोबा टूट जाती है। ऐसे मौसम में जो तोबा करे सौदाई (पागल) है।" एक ने कहा।
"खूब! अच्छा कहा है।"
"भई, यह चीज तो किसी मौसम में भी त्यागने योग्य नहीं है।"
इन्हीं बातों में बेरा मदिरा-पान का सामान ले आये। दो बोतल हिस्की, सोड़ा, बर्फ। दोनों बेरा ने सबके गिलास बनाकर तैयार किये और कबाब की एक एक प्लेट सब के सामने रख दी। 'गुडलक' के साथ मदिरापान आरम्भ हुआ। बाबू साहब बोले---"बरसात पर कुछ और शेर सुनाओ, तुम्हें तो बहुत याद हैं।"
"क्या कहने हैं! दीवान के दीवान याद हैं इस शख्स को गजब का हाफिजा ( स्मरण शक्ति ) है।" एक कायस्थ एडवोकेट बाबू शंकर-दयाल ने कहा।
"हाँ सुनाओ महेन्द्रसिंह!"
सुनिये---"पीने वाले क्यों न हों सौ दिल सौ जाँ से निसार। दिल को तड़पाती है क्या क्या हर अदा बरसात की।"
"भई, तड़पन-फड़कन का यहां काम नहीं है। यहाँ तो---'हर रोज रोजे ईद है, हर रात शबबरात, सोता हूँ हाथ गर्दने मीना में डाल के।' कृष्ण प्रसाद दर नामक काश्मीरी सज्जन ने कहा।
"मीना महरी? वाह भतीजे!"
"मीना महरी कौन?" रायबहादुर साहब हँसते हुए बोले।
"इनको एक मुंहलगी है, नाम मीना और जात"....कहारिन!"
दर साहब बोले--"इन गंवारों के सामने शेरो-शायरी कहना बिल. कुल बेकार है! मीना शराब की बोतल को कहते हैं, इन्हें कहारिन याद आती है!"
महेन्द्रसिह बोला-"पीने वाले सबसे पहले मांगते हैं यह दुआ,