पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१५६

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"वाह भई---यह बस अच्छी रही। क्या बस कुछ मालूम भी तो हो?"

"कुछ समझ में नहीं आता।"

"कोई नई बात हो ही नहीं सकती। रंग खेलो, खूब भांग छानो- बस यही होली का त्योहार है।"

"इस साल किसी को बेवकूफ बनाना चाहिए।"

"हाँ जो कुछ शरारत करना हो इस साल कर लो---सम्वत एक से सत्युग लगने वाला है। सत्युग में कुछ न कर पाओगे।"

"सत्युग में होली कैसे मनाई जायगी?"

"भगवान जाने कैसे मनाई जायगी---जैसे सब मनायेंगे वैसे ही अपने को भी मनानी पड़ेगी।"

"हम तो सत्युग में भी ऐसे ही मनायेंगे।"

"मना पायोगे तब तो मनाओगे।"

"अपने घर में किसी का इजारा है।"

"तो सत्युग आपके घर से बाहर ही रहेगा क्या?"

"हाँ, केवल होली भर?"

कुछ देर वार्तालाप करके अन्य सब लोग तो उठ गये केवल एक महाशय रह गये! उन्होंने एक सोने का जेवर निकाल कर महाशय जी को दिखाया।

महाशय जी ने पूछा---"क्या बात है?"

"इसे रख लीजिए और पचास रुपये दे दीजिए।"

"क्या करोगे?"

"करेंगे क्या? होली का खर्च चाहिए।"

"अच्छा! पचास रुपये खर्च कर डालोगे।"

"हां इतने तो खर्च ही हो जायंगे---साल भर का त्योहार है।"

"बड़े बेढब हो।"

"हम तो ऐसा ही करते हैं। जो काम करते हैं दिल खोल कर। चार दिन की जिन्दगी है एक दिन मर जायंगे---चले जायंगे। जितने