"हाँ ! ठीक कहते हो।" पण्डित जी ने मुस्कराकर कहा।" इसके पश्चात् बात का प्रसंग बदल गया।
( २ )
अष्टमी का दिन था। चारों ओर दुर्गापूजा की धूम थी ? स्त्री-पुरुष देवी-भन्दिर की ओर दौड़े चले जा रहे थे ।
पण्डित माता प्रसाद अपने मन्दिर में नित्यानुसार उपस्थित थे मन्दिर का पुजारी बोला-'आप देवी के दर्शन करने न जायगे-कर आइये दुर्गाष्टमी है।
"क्या बतावे पुजारी जी, दर्शन करते-करते ये आँखें बेकार हुई जा रही हैं, परन्तु कोई लाभ तो होता नहीं।"
"देव-दर्शन स्वयं सबसे बड़ा लाभ है।"
"पारलौकिक हो तो हो, लौकिक लाभ तो कुछ भी नहीं है।"
"लौकिक लाभ होता ही है श्रद्धा होनी चाहिए।"
"श्रद्धा ! इस देश में श्रद्धालुओं की कमी है। झुण्ड के झण्ड स्त्री-पुरुष जो देवी-मन्दिर की ओर भागे चले जा रहे है, ये क्या श्रद्धा का विज्ञापन नहीं करते।"
"निस्सन्देह ! करते हैं । इसो से तो पता चलता है कि हमारे देश में अब भी इतनी श्रद्धा है।"
"परन्तु उसका फल क्या ? महिषासुरमर्दिनी जगज्जननी महा. माया आज तक अपने भक्तों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त न करा सकी।"
"अवश्य करायगी, समय आने दीजिए।"
"यदि सर्वशक्तिमान देवताओं को भी समय की प्रतीक्षा है तब तो यह श्रद्धा-वृद्धा सब व्यर्थ है।"
"एक बात और भी तो है पण्डित जी, हम लोग उन्हें हृदय से पुकारते कब हैं।"
"तब तो यह श्रद्धा ढोंग है, दिखावा मनोरंजन है।"