"नहीं, सब तो ऐसे नहीं हैं । ऐसे लोग भी हैं जो सच्चे भक्त हैं।"
"तब वे केवल अपने व्यक्तित्व अथवा अपने सपरिवार के लिए देवी की कृपा चाहते हैं, यह तो स्वार्थ कहलायगा।"
"आप का तात्पर्य क्या है पण्डित जो !"
"मेरा तात्पर्य यह है कि मुझे यह व्यर्थ की श्रद्धा-भक्ति देख कर क्लेश होता है। हम अपने धर्म की लाश को हृदय से लगाये हुए हैं, हमारा धर्म निष्प्राण हो चुका है।"
"आप ऐसा कहते हैं ! राम के अनन्य भक्त होकर !”
"मेरी भक्ति भी अन्यों की भांति ही है।"
"आप ऐसा कहें मैं तो ऐसा नहीं समझता।"
"मैं तो समझता हूँ।"
"तो आखिर आप चाहते क्या हैं ?"
"मैं चाहता हूँ कि हमारे धर्म का कायाकल्प हो उसमें फिर से नव स्फूर्ति भावे ।"
"वह कैसे आवेगी ?"
'धर्म को नया जामा पहनने से ! वर्तमान समय में हमारा धर्म जो रूप धारण किये हुए है वह हमारे लिए व्यर्थ है । हम उससे न अपना कुछ भला कर सकते हैं न दूसरों का । हम मानते तो हैं विजय दशमी और पुलीस के पहरे में अपने जुलूस निकालते हैं। हमारे राम- कृष्ण भी बिना पुलोस की सहायता के निरापद नहीं रह सकते । यह है हमारा धर्म ! यह विजय दशमी है ? यह विजय दशमी नहीं, विजय दशमी का उपहास है, उसका मखौल उड़ाना है । जरा गड़बड़ी होते ही हम अपने पूज्य देवताओं के प्रतीकों को छोड़ कर बिलों में घुस जाते हैं। थोड़ा सा ही विरोध होने पर हमें अपना धार्मिक कार्य ही बन्द कर देना पड़ता है। ये विजय के लक्षण हैं या पराजय के । बाँस और कागज के रावण पर विजय पाने के लिए हम इतना बड़ा आयोजन करते हैं, उसे जलाकर हम समझते हैं कि हमने विजय प्राप्त कर ली । परन्तु आप १३