की वास्तविकता यह है कि बिना सरकारी सहायता के आप उस कागज के रावण पर भी विजय नहीं प्राप्त कर सकते।"
पुजारी जी सिर झुका कर बोले "बात तो आप ठीक कहते हैं, परन्तु किया क्या जाय ? यदि कुछ न किया जाय तब भी नहीं बनता कुछ करते रहने से हमारे धार्मिक उत्सवों का अस्तित्व तो बना हुआ है।"
"हाँ केवल इतना ही लाभ है। इस बहाने लोगों का मनोरंजन हो जाता है।
( ३ )
विजय दशमी का दिन आ पहुँचा । घर-घर में उत्साह तथा प्रानन्द हिलोरें मार रहा था । परन्तु पण्डित माताप्रसाद आज कुछ निरुत्साह तथा उदासीन दिखाई पड़ रहे थे। उनका घर भर प्रसन्न तथा उत्साहित था परन्तु वह स्वयं खिन्न-चित्त से थे ! इतना होते हुए भी वह सवेरे से ही मन्दिर में उपस्थित थे। आज भोजनार्थियों की भीड़ अधिक थी और पण्डित जी नियमित संख्या की उपेक्षा करके सबको भोजन दे रहे थे ।
बारह बजे तक वह यह कार्य करके पैदल ही घर की ओर आरहे थे कि राह में उनके एक परिचित मिल गये । पण्डित जी से उन्होंने पूछा—"आज अब मन्दिर से लौटे"
"हाँ ! जरा देर होगई । तुम किधर चले।"
"क्या बताऊँ, मैं तो थोड़े झंझट में हूं।"
"झंझट कैसा ?"
"मेरे पड़ोस में एक गरीब ब्राह्मण रहते थे। दो मास हुए उनका देहान्त हो गया है । उनका परिवार बड़े कष्ट में है-पेट भर भोजन का भी ठिकाना नहीं है । आज विजय-दशमी है । घर-घर में उत्साह और आनन्द—विधवा बेचारी बैठी रो रही है। उसके दो बच्चे सबेरे से ही रोना-धोना मचाये हैं--कहते हैं कपड़े लाओ, मिठाई लामो, खिलौने लामो । बह विधवा बेचारी ये सब कहाँ से लावे।"