पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/७१

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रात के दो बजने का समय था। इसी समय एक तङ्ग तथा अंधेरी गली से एक मुसलमान स्त्री बुर्के से अपना शरीर तथा मुख छिपाये निकली। इस गली के सामने सड़क पर दो कान्स्टेबिल भाले लिए एक बन्द दुकान के चबूतरे पर बैठे थे। बुर्कापोश स्त्री गली से निकल कर उनकी और आई और एक मुसलमानी मुहल्ले का नाम लेकर बोली, "---किधर है?"

कान्स्टेबिल ने पूछा—"तुम वहाँ रहती हो?"

"हाँ"

"यहां इतनी रात को क्यों आई थी।"

स्त्री कुछ क्षण विचार कर के बोली—"अब यह क्या करोगे पूछ के रास्ता बता दो।"

"हूँ ! तब तो मामला कुछ गड़बड़ है। अब तो तुम्हें बताना पड़ेगा।"

स्त्री ने खुशामद की लेकिन कान्स्टेबिल किसी तरह न माने। स्त्री बोली—"अच्छा सब बता दूँगी।"

दोनों कान्स्टेबिल उसे लेकर चौकी पहुँचे। चीफ साहब पड़े सो रहे थे उन्हें जगाकर सब वृतान्त कहा—"सच बताओ।"

स्त्री बोली—"यहाँ एक आदमी से मेरा ताल्लुक है उसी के पास आई थी।

"हूँ—जिना करके आई थी। अच्छा इसे बन्द करो—सबेरे थाने पर पेश करेंगे।

स्त्री ने खुशामद की, पर चीफ साहब न माने। अन्त में उसने अपने हाथ से एक सोने की चूड़ी उतार कर दी तब चीफ साहब राजी हुए।

स्त्री आगे चली। कुछ फासले पर उसे एक और कान्स्टेबिल मिला।