"हजार-पाँचसौ मेंं तो बड़ा अन्तर है यार !" तीसरे मित्र ने
कहा।
"मेरा मतलब है कम से कम पाँच-सौ और अधिक से अधिक एक हजार!"
"कल जरा पता लगवाना चाहिए।" रायबहादुर साहब बोले।
"क्या करोगे पता लगवा कर?"
रायबहादुर साहब किंचित् मुस्कराकर बोले—"तबियत !"
"अच्छा जान पड़ता है तबियत आ गई। लेकिन यहाँ आपकी दाल नहीं गलेगी।"
"क्या कहते हो दाल नहीं गलेगी? रुपया वह चीज है कि पत्थर को गला देता है—दाल तो दाल !"
"यहाँ रुपया काम नहीं देगा।"
"रुपया हर जगह काम देता है और यहां भी काम देगा।"
"मुझे तो सन्देह है।"
"अच्छा कुछ शर्त बद लो!" रायबहादुर साहब बोले।
"शर्त-वर्त बदना तो अपनी समझ में नहीं आता।"
"मैं शर्त बदता हूं।" तीसरे सज्जन बोल उठे।
"क्या शर्त बदते हो।
"जो आपका जी चाहे।"
"हजार रुपये की शर्त रही।"
"रुपये की शर्त तो व्यर्थ है। देखिये यदि हार जाँय तो यह कहना छोड़ दें कि रुपया सब कुछ कर सकता है।"
"और जो तुम हार गये?" रायबहादुर ने पूछा।
"तो मैं यह मान लूँगा कि वाकई रुपया सब कुछ कर सकता है।"
"जरा समझ-बूझ कर शर्त बदो। थियेटर-सर्कस की औरतों पर ऐसी शर्त बदना मूर्खता है। ये तो पैसे से हस्तगत की जा सकती हैं।"
"हाँ—क्या हुआ। परन्तु कम से कम कोई हिन्दुस्तानी तो इसे पैसे