पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३
चौथा सर्ग।

और बड़ी बड़ी नावों पर सवार होकर जिस समय हम लोग लड़ेंगे उस समय रघु की कुछ न चलेंगी । जलयुद्ध में हम लोग रघु की अपेक्षा अधिक प्रवीण हैं । परन्तु यह उनकी भूल थी । रघु बड़ाही प्रवीण सेनानायक था। उसने उन सबको परास्त करके बलपूर्वक उखाड़ फेंका और गङ्गा-प्रवाह के भीतर टापुओं में कितने ही विजय-स्तम्भ गाड़ दिये । परास्त किये जाने पर वे वङ्गदेशीय नरेश होश में आये और रघु के पैरों पर जाकर गिरे । शरण आने पर रघु ने उनका राज्य उन्हें लौटा दिया- उन्हें फिर राज्यारूढ़ कर दिया। उस समय वे नरेश जड़ तक झुके हुए धान के उन पौधों की उपमा को पहुँचे जो उखाड़ कर फिर लगा दिये जाते हैं। जैसे इस तरह लगाये हुए पौधे और भी अधिक फल देते हैं और भी अधिक धान उत्पन्न करते हैं-उसी तरह उन वङ्ग-नरेशों ने भी, राज्यचुत होकर राज्यारूढ़ होने पर,रघु को और भी अधिक धन-धान्य देकर उसे प्रसन्न किया ।

इसके अनन्तर राजा रघु ने कपिशा (रूपनारायण.) नदी पर हाथियों का पुल बाँध कर सेनासहित उसे पार किया। उत्कलदेश (उड़ीसा) में उसके पहुँचते ही वहाँ के शासक राजाओं ने उसकी शरण ली । अतएक उनसे युद्ध करने की आवश्यकता न पड़ी। कलिङ्गदेश की सीमा उत्कल से मिली ही हुई थी। इस कारण उत्कलवाले वहाँ का मार्ग अच्छी तरह जानते थे । उन्हीं के बताये हुए मार्ग से रघु, शीघ्र ही, कलिङ्गदेश के पास जा पहुँचा।

कलिङ्ग की सीमा के भीतर घुस कर, उसने महेन्द्र-पर्वत (पुर्वी घाट) के शिखर पर अपने असह्य प्रताप का झण्डा इस तरह गाड़ दिया जिस तरह कि पीड़ा की परवा न करनेवाले उन्मत्त हाथी के मस्तक पर महावत अपना तीक्ष्ण अंकुश गाड़ देता है । रघु के आने का समाचार सुनते ही कलिङ्ग-देश का राजा, बहुत से हाथी लेकर, उससे लड़ने के लिए आया । अपने वज्र के प्रहार से पर्वतों के पंख काटने के लिए जिस समय इन्द्र तैयार हुआ था उस समय पर्वतों ने जिस तरह इन्द्र पर पत्थर बरसाये थे उसी तरह कलिङ्ग-नरेश और उसके सैनिक भी रघु पर शस्त्रास्त्र बरसाने लगे। परन्तु वैरियों की बाणवर्षा को झेल कर रघु ने उन्हें लोहे के चने चबवाये। जीत उसी की रही। विजय लक्ष्मी उसी के गले पड़ी | उस समय वह मङ्गल-