पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१२०

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पाँचवाँ सर्ग।

इस समय,खाली हाथ हो रहे हैं। कुछ भी धन-सम्पत्ति आपके पास नहीं। एक मात्र आपका शरीर हो अब अवशिष्ट है। अरण्य-निवासी मुनियों के द्वारा बालें तोड़ ली जाने पर साँवाँ, कोदों आदि तृण धान्यों के पौधे जिस तरह धान्य-विहीन होकर खड़े रह जाते हैं, उसी तरह आप भी, इस समय, सम्पत्ति-हीन होकर शरीर धारण कर रहे हैं। विश्वजित यज्ञ करके और उसमें अपना सारा धन खर्च करके आपने, पृथ्वी-मण्डल के चक्रवर्ती राजा होने पर भी, अपने को निर्धन बना डाला है। आपकी यह निर्ध- नता बुरी नहीं। उसने तो आपकी कीर्ति को और भी अधिक उज्ज्वल कर दिया है- उससे तो आपकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। देवता लोग चन्द्रमा का अमृत जैसे जैसे पीते जाते हैं वैसे ही वैसे उसकी कलाओं का क्षय होता जाता है;और,सम्पूर्ण क्षय हो चुकने पर, फिर, क्रम क्रम से, उन कलाओं की वृद्धि होती है । परन्तु उस वृद्धि की अपेक्षा चन्द्रमा का वह क्षय ही अधिक लुभावना मालूम होता है । आपका साम्पत्तिक क्षय भी उसी तरह आपकी शोभा का बढ़ाने वाला है, घटाने वाला नहीं । हे राजा! गुरु-दक्षिणा तो मुझे कहीं से लानी ही होगी; और, आप से तो उसके मिलने की आशा नहीं । अतएव अब मैं और कहीं से उसे प्राप्त करने की चेष्टा करूँगा। आपको इस सम्बन्ध में मैं सताना नहीं चाहता। सारे संसार को जल-वृष्टि से सुखी करके शरत्काल को प्राप्त होने वाले निर्जल मेघों को, पतङ्ग-योनि में उत्पन्न हुए चातक तक, अपनी याचनाओं से, तङ्ग नहीं करते । फिर मैं तो मनुष्य हूँ और गुरु की कृपा से चार अक्षर भी मैंने पढ़े हैं । भगवान् आपका भला करे, मैं अब आप से विदा होता हूँ।"

इतना कह कर महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स खड़ा हो गया और वहाँ से जाने लगा। यह देख, राजा रघु ने उसे रोक कर ज़रा देर ठहरने की प्रार्थना की। वह बोला:--

"हे पण्डितवर ! आप यह तो बता दीजिए कि गुरु-दक्षिणा में कौनसी चीज़ आप अपने गुरु को देना चाहते हैं और कितनी देना चाहते हैं ।"

यह सुन कर,इतने बड़े विश्वजित् नामक यज्ञ को यथाविधि करने पर भी जिसे गर्व छू तक नहीं गया,और,जिसने ब्राह्मण आदि चारों वर्षों तथा ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया है उस