पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०७
सातवाँ सर्ग।


सम्पत्ति लेते समय, वामनावतार विष्णु के तीसरे पैर को, वामन-पुराण के लेखानुसार, जिस तरह प्रह्लाद ने रोका था, उसी तरह, इन्दुमती को ले जाते हुए अज के मार्ग को इन उद्धत और अभिमानी राजाओं के समूह ने रोका। अपनी अपनी सेना लेकर वे मार्ग में खड़े हो गये और युद्ध के लिए अज को ललकारने लगे। यह देख, अपने पिता के विश्वासपात्र मंत्री को बहुत से योद्धे देकर, इन्दुमती की रक्षा का भार तो अज न उसे सौंपा; और, स्वयं आप उन राजाओं की सेना पर इस तरह जा गिरा-इस तरह टूट पड़ा-जिस तरह कि उत्ताल-तरङ्ग धारी सोनभद्र नद हहराता हुआ गङ्गा में जा गिरता है।

घन-घोर युद्ध छिड़ गया। पैदल पैदल से, घोड़े का सवार घोड़े के सवार से, हाथी का सवार हाथी के सवार से भिड़ गया। जो जिसके जोड़ का था वह उसको ललकार कर लड़ने लगा। तुरही आदि मारू बाजे, दोनों पक्षों की सेनाओं में, बजने लगे। उनके तुमुलनाद से दिशायें इतनी परिपूर्ण हो गई कि धनुर्धारी योद्धाओं के शब्दों का सुना जाना असम्भव हो गया। इस कारण उन लोगों ने मुँह से यह बताना व्यर्थ समझा कि हम कौन हैं और किस वंश में हमारा जन्म हुआ है। यदि वे इस तरह अपना परिचय देकर एक दूसरे से भिड़ते तो उनके मुख से निकले हुए शब्द ही न सुनाई पड़ते। तथापि यह कठिनाई एक बात से हल हो गई। योद्धाओं के बाणों पर उनके नाम खुदे हुए थे। उन्हीं को पढ़ कर उन लोगों को एक दूसरे का परिचय प्राप्त हुआ।

रथों के पहियों से उड़ी हुई धूल ने घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल को और भी गाढ़ा कर दिया। धूल के उस घनीभूत पटल को हाथियों ने अपने कान फटकार फटकार कर चारों तरफ़, इतना फैला दिया कि वह मोटे कपड़े की तरह आकाश में तन गई। फल यह हुआ कि सूर्य बिलकुल ही ढक गया-दिन की रात सी हो गई। ज़ोर से हवा चलने के कारण मछलियों के चिह्न वाली सेना की ध्वजायें खूब फैल कर उड़ने लगों। उनके तन जाने से ध्वजाओं पर बनी हुई मछलियों के मुँह भी पहले की अपेक्षा अधिक विस्तृत हो गये। उन पर ज्यों ज्यों सेना की उड़ाई हुई गाढ़ी धूल गिरने लगी त्यों त्यों वे उसे पीने सी लगों। उस समय ऐसा मालूम होने