पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४३
पन्द्रहवाँ सर्ग ।

एक दिन की बात है कि मृत्यु महाराज, मुनि का वेश धारण करके, रामचन्द्रजी के पास आये और बोले:-

“महाराज ! मैं आप से एकान्त में कुछ कहना चाहता हूँ। आप यह प्रतिज्ञा कीजिए कि जो कोई हम दोनों को बातचीत करते देख लेगा उसका आप परित्याग कर देंगे।"

रामचन्द्रजी ने कहा:-"बहुत अच्छा । मुझे मज़र है। .

तब काल ने अपना असली रूप प्रकट करके कहा कि अब आपके स्वर्ग-गमन का समय आ गया। अतएव, ब्रह्मा की आज्ञा से, आपको वहाँ जाने के लिए अब तैयार हो जाना चाहिए।

इतने में रामचन्द्रजी के दर्शन की इच्छा से दुर्वासा ऋषि राजद्वार पर आ पहुँचे । लक्ष्मणजी, उस समय, द्वारपाल का काम कर रहे थे। काल से रामचन्द्रजी ने जो प्रतिज्ञा की थी उसका भेद लक्ष्मणजी को मालूम था । परन्तु दुर्वासा के शाप के डर से उन्हें, ऋषि के आगमन की सूचना देने के लिए, रामचन्द्रजी के पास जाना पड़ा । जाकर उन्होंने देखा तो रामचन्द्रजी एकान्त में बैठे हुए काल पुरुष से बातें कर रहे थे। फल यह हुआ कि की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया।

लक्ष्मणजी योगविद्या में पारङ्गत थे । वे पूरे योगी थे। अतएव वे सरयू के किनारे चले गये और योग-द्वारा शरीर छोड़ कर बड़े भाई की प्रतिज्ञा को भङ्ग न होने दिया।

लक्ष्मण के पहले ही स्वर्गगामी हो जाने से रामचन्द्रजी का तेज एक चतुर्थांश कम हो गया। अतएव, तीन पैर के धर्म की तरह वे पृथ्वी पर शिथिल होकर किसी तरह अपने दिन पूरे करने लगे। अपने लीला-समापन का समय समीप आया जान उन्होंने अपने बड़े बेटे कुरा को, जो शत्ररूपी हाथियों के लिए अंकुश के सदृश था, कुशावती में स्थापित कर के उसे वहाँ का राजा बना दिया। और, मधुर तथा मनोहर वचनों के प्रभाव से सज्जनों की आँखों से आँसू टपकाने वाले दूसरे बेटे लव को शरावती नामक नगरी में स्थापित करके वहाँ का राज्य उसे दे दिया।

इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों को राजा बना कर स्थिर-बुद्धि रामचन्द्रजी ने स्वर्ग जाने की तैयारी कर दी। उन्होंने भरत और शत्रुघ्न को साथ