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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३३८

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अठारहवाँ सर्ग।


धार्मिक भी वह बड़ा था। अनेक यज्ञ वह कर चुका था। चारों वर्षों की रक्षा का बोझ बहुत काल तक सँभालने के बाद जब उसने देखा कि मेरा पुत्र, सब बातों में, मेरे ही सहश है तब उस बोझ को उसने उसके कन्धे पर रख दिया और आप यज्ञ करनेवालों के लोक को प्रस्थान कर गया स्वर्ग-लोक को सिधार गया।

देवानीक का पुत्र बड़ाही जितेन्द्रिय और मधुरभाषी हुआ। अपने मृदु, भाषण से उसने अपनों की तरह परायों को भी अपने वश में कर लिया। मित्र ही नहीं, शत्रु भी उसे प्यार की दृष्टि से देखने लगे। मीठे वचनों की महिमा ही ऐसी है। उनसे, और तो क्या, एक बार डरे हुए हिरन भी वश में कर लिये जा सकते हैं। इस राजा का नाम अहीनगु था। इसके भुजबल में ज़रा भी हीनता न थी। यह बड़ा बली था। हीनजनों (नीचों) की इसने कभी सङ्गति न की। उन्हें इसने सदा दूर ही रक्खा। इस कारण, युवा होने पर भी, यह अनेक अनर्थकारी व्यसनों से विहीन रहा। इस प्रबल पराक्रमी राजा ने न्यायपूर्वक सारी पृथ्वी का शासन किया। यह बड़ा ही चतुर था। मनुष्यों के पेट तक की बातें यह जान लेता था। साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों राजनीतियों का सफलतापूर्वक प्रयोग करके यह चारों दिशाओं का स्वामी बन बैठा। पिता देवानीक के पश्चात् पृथ्वी पर इसका अवतार आदि-पुरुष भगवान् विष्णु के अवतार के समान था।

शत्रुओं को हरानेवाले अहीनगु की परलोकयात्रा हो जाने पर उसके स्वर्गलोक चले जाने पर-राज-लक्ष्मी उसके पुत्र पारियात्र की सेवा करने लगी। उसका सिर इतना उन्नत था कि पारियात्र नामक पर्वत की उँचाई को भी उसने जीत लिया था। इसी से उसका नाम पारियात्र हुआ!

उसके बहुत ही रदारशील पुत्र का नाम शिल हुआ। उसकी छाती शिला की पटिया के समान विशाल थी। उसने अपने शिलीमुखों (बाणों) से अपने सारे वैरियों को जीत लिया। तथापि, यदि किसी ने उसकी वीरता की प्रशंसा की तो उसे सुन कर उसने शालीनता से सदा ही अपना सिर नीचा कर लिया। उसके प्रशंसनीय पिता पारियात्र ने उसे विशेष बुद्धिमान देख कर, तरुण होते ही, युवराज बना दिया। उसने मन में कहा कि राजा

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