वसन्त पाने पर दक्षिण दिशा से मलयानिल चलने लगा। उसके चलते ही आम के वृक्ष कुसुमित हो गये। उनकी कोमल-पल्लव-युक्त मञ्जरियों को देखते ही अग्निवर्ण की अबलाओं के मान आपही आप छूट गये। उन्हें अग्निवर्ण का विरह दुःसह होगया। अतएव, वे उलटा अग्निवर्ण को ही मना कर उसे प्रसन्न करने लगीं। तब उसने झूले डला दिये। दासियाँ मुलाने लगी और वह अपनी अबलाओं के साथ झूले का सुख लुटने लगा।
वसन्त बीत जाने पर अग्निवर्ण की प्रियतमाओं ने ग्रीष्म ऋतु के अनुकूल शृङ्गार किया:-उन्होंने शरीर पर चन्दन का लेप लगा कर, मोती टके हुए सुन्दर आभूषण धारण करके, और, मणिजटित मेखलायें कमर में पहन कर, अग्निवर्ण को जी खोल कर रिझाया। अग्निवर्ण ने भी ग्रीष्म के अनुकूल उपचार आरम्भ कर दिये। आम की मञ्जरी डाल कर बनाया हुआ और लाल पाटल के फूलों से सुगन्धित किया हुआ मद्य उसने खुद ही पान किया। अतएव, वसन्त चले जाने के कारण उसके शरीर में जो क्षीणता आ गई थी वह जाती रही और उसके मनोविकार फिर पूर्ववत् उच्छङ्कल हो उठे।
इस प्रकार जिस ऋतु की जो विशेषता थी-जिसमें जैसे आहार-विहार की आवश्यकता थी-उसी के अनुसार अपने अपने शरीर को अलङ्कत और मन को संस्कृत करके उसने एक के बाद एक ऋतु व्यतीत कर दी। इन्द्रियों के सुख-सेवन में वह यहाँ तक लीन हो गया कि और सारे काम वह एकदम ही भूल गया।
अग्निवर्ण के इस दशा को पहुंचने पर भी-उसके इतना प्रमत्त होने पर भी-दूसरे राजा लोग, अग्निवर्ण के प्रबल प्रभाव के कारण, उसे जीत न सके। परन्तु रोग उस पर अपना प्रभाव प्रकट किये बिना न रहा। अत्यन्त विषय-सेवा करते करते उसे क्षय-रोग हो गया। दक्ष के शाप से क्षीण हुए चन्द्रमा की तरह अग्निवर्ण को उस रोग ने क्षोण कर दिया। जब वैद्यों ने राजा के शरीर में रोग का प्रादुर्भाव देखा तब उन्होंने उसे बहुत कुछ समझाया बुझाया। परन्तु उसने उनकी एक न सुनी। कामोद्दीपक वस्तुओं के दोषों को जान कर भी उसने उनको न छोड़ा। बात यह है कि जब इन्द्रियाँ सुस्वादु विषयों के वशीभूत हो जाती हैं तब उन्हें छोड़ना कठिन