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रघुवंश।


हो जाता है। अग्निवर्ण की कामुकता का फल यह हुआ कि राज. यक्ष्मा, अर्थात् क्षय-रोग, ने अपना बड़ा ही भीषण रूप प्रकट किया। उसका मुँह पीला पड़ गया। शरीर पर धारण किये हुए दो एक छोटे छोटे आभूषण भी बोझ मालूम होने लगे। स्वर धीमा हो गया। बिना दूसरे के सहारे चार कदम भी चलना कठिन हो गया। सारांश यह कि कामियों, की जैसी दशा होनी चाहिए वैसीही दशा उसकी हो गई। अग्निवर्ण के इस प्रकार उग्र राज-रोग से पीड़ित होने पर उसका वंश विनाश की सीमा के बहुत ही पास पहुँच गया। वह चौदस के चन्द्रमावाले आकाश के समान, अथवा कीच मात्र बचे हुए ग्रीष्म के अल्प जलाशय के समान, अथवा नाम मात्र को जलती हुई ज़रा सी बत्तीवाले दीपक के समान होगया।

राजा की बीमारी की सुगसुग प्रजा को लग चुकी थी। अतएव, मन्त्री लोग डरे कि कहीं ऐसा न हो जो राजा को मर गया समझ प्रजा उपद्रव मचाने लगे। यह सोच कर उन्होंने राजा के उग्र रोग का सच्चा हाल यह कह कर प्रति दिन प्रजा से छिपाया कि राजा इस समय पुत्र के लिए एक यज्ञ कर रहा है; इसीसे वह प्रजा को दर्शन नहीं देता।

अग्निवर्ण के यद्यपि अनेक रानियाँ थीं तथापि उसे पवित्र सन्तति का मुख देखने को न मिला। एक भी रानी से उसे सन्तति की प्राप्ति न हई। उधर उसका रोग दिन पर दिन बढ़ता ही गया। वैद्यों ने यद्यपि रोग दूर करने के यथाशक्ति बहुत उपाय किये तथापि उनका सारा परिश्रम व्यर्थ गया। दीपक जैसे प्रचण्ड पवन के झकोरे को नहीं जीत सकता वैसेही अग्निवर्ण भी अपने रोग को न जीत सका। रोग ने उसके प्राण लेकर ही कल की। तब मन्त्री लोग राजा के शव को महलों के ही उद्यान में ले गये और मृतक-कर्म के ज्ञाता पुरोहित को बुला भेजा। वहीं उन्होंने उसे चुपचाप जलती हुई चिता पर रख दिया और प्रजा से यह कह दिया कि राजा की रोगशान्ति के लिए उद्यान में एक अनुष्ठान हो रहा है।

तदनन्तर, मन्त्रियों को मालूम हुआ कि अग्निवर्ण की प्रधान रानी गर्भवती है। अतएव, उन्होंने प्रजा के मुखियों को बुलवाया। उन्होंने भी रानी को शुभ गर्भ के लक्षणों से युक्त पाया। तब सबने एकमत होकर