उसकी उपलब्धि सहसा नहीं होती। देवशक्ति जिस प्रकार अज्ञात-भाव-पूर्वक अपना काम करती है उसी तरह कवि का वह गूढ़ उद्देश भी पाठकों के हृदय पर असर करता है; पर उनको उसके अस्तित्व की कुछ भी ख़बर नहीं होती। इस प्रकार का गूढ उद्देश पाठकों के अन्तःकरण में चिर स्थायी संस्कार उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। कवि का वह प्रच्छन्न उद्देश है--पाठकों के हृदय का उत्कर्ष-साधन और शुद्धि-विधान, तथा जगत् को शिक्षा प्रदान। कवि-जन पहले तो सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखलाते हैं। फिर, उसी प्रत्यक्ष-सौन्दर्य-सृष्टि के द्वारा परोक्षभाव से पाठकों के हृदय को भी सौन्दर्य पूर्ण कर देते हैं। सुन्दर फूल को देख कर नेत्रों को अवश्य तृप्ति होती है; पर यदि ऐसे फूल में सौरभ भी हो तो साथही मन भी तृप्त हो जाता है। नेत्रों की तृप्ति क्षणस्थायिनी होती है। परन्तु मन की तृप्ति चिरस्थायिनी। इसी से कवि-जन लोकशिक्षोपयोगी आदर्शों को सौन्दर्य्यरूपी हृदयरक्षक आवेष्टन से प्रावृत करके संसार में शिक्षा का प्रचार करते हैं। धीरता और सत्यप्रियता सर्वश्रेष्ठ गुण हैं। अतएव सबको धीर और सत्यप्रिय होना चाहिए। भीष्म और युधिष्ठिर की सृष्टि करके महाभारत में कवि ने बड़ी ही खूबी से इन गुणों की शिक्षा दी है। सैकड़ों वाग्मी हज़ारों वर्ष तक वक्तृता देकर भी जो काम इतनी अच्छी तरह नहीं कर सकते, जो काम राजशासन द्वारा भी सुन्दरतापूर्वक नहीं हो सकता, वही काम कवि अपने सृष्टि-कौशल द्वारा सहजही में कर सकता है। आत्म-त्याग अच्छी चीज़ है, स्वार्थपरता बुरी। इस तत्व को धर्मोपदेष्टा सौ वर्ष तक प्रयत्न करके शायद लोगों के हृदय पर उतनी सुन्दरता से खचित न कर सकेंगे जितनी सुन्दरता से कि कवि ने राम के द्वारा सीता का निर्वासन कराकर खचित किया है। इसी से यह कहना पड़ता है कि कवि संसार के सर्व-प्रधान शिक्षक और सर्व-प्रधान उपकारक हैं।
काव्य का सृष्टि-सौन्दर्य किसी निर्दिष्ट विषय से ही सम्बन्ध नहीं रखता। केवल रूप, गुण या किसी अवस्था-विशेष के वर्णन में ही सौन्दर्य परि- स्फुट नहीं होता। देश, काल, पात्र, रूप, गुण, अवस्था, कार्य आदि की समष्टि के द्वारा यदि किसी सुन्दर वस्तु की सृष्टि की जाय तो उस सृष्ट