पृष्ठ:रघुवंश.djvu/६०

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पहला सर्ग।


एक तो उसे और दूसरी राज्यलक्ष्मी को ही अपनी सच्ची रानियाँ समझता था। राजा की यह हृदय से इच्छा थी कि अपने अनुरूप सुदक्षिणा रानी के एक पुत्र हो। परन्तु दुर्दैववश बहुत काल तक उसका यह मनोरथ सफल न हुआ। इस कारण वह कुछ उदास रहने लगा। इस प्रकार कुछ समय बीत जाने पर उसने यह निश्चय किया कि सन्तान की प्राप्ति के लिए अब कुछ यत्न अवश्य करना चाहिए। यह विचार करके उसने प्रजापालनरूपी गुरुतर भार अपनी भुजाओं से उतार कर अपने मन्त्रियों के कन्धों पर रख दिया। मन्त्रियों को राज्य का कार्य सौंप कर भार्थ्या-सहित उसने ब्रह्मदेव की पूजा की। फिर उन दोनों पवित्र अन्तःकरण वाले राजा-रानी ने, पुत्र प्राप्ति की इच्छा से, अपने गुरु वशिष्ठ के आश्रम को जाने के लिए प्रस्थान कर दिया।

एक बड़े ही मनोहर रथ पर वह राजा अपनी रानी-सहित सवार हुआ। उसके रथ के चलने पर मधुर और गम्भीर शब्द होने लगा। उस समय ऐसा मालूम होता था मानों वर्षा-ऋतु के सजल मेघ पर बिजली कों लिये हुए अभ्र मातङ्ग ऐरावत सवार है। उसने अपने साथ यह सोच कर बहुत से नौकर चाकर नहीं लिये कि कहीं उनके होने से ऋषियों के आश्रमों को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचे। परन्तु वे दोनों राजा-रानी इतने तेजस्वी थे कि तेजस्विता के कारण बिना सेना के भी वे बहुत सी सेना से घिरे हुए मालूम होते थे। इस प्रकार जिस समय वे मार्ग में चले जा रहे थे उस समय शरीर से छ जाने पर विशेष सुख देनेवाला, शाल-वृक्षों की सुगन्धि और वन के फूलों के पराग को अपने साथ लाने वाला और जड़ली वृक्षों के पत्तों और टहनियों को हिलानेवाला शीतल, मन्द और सुगन्धिपूर्ण पवन उनकी सेवा सी करता चलता था। रथ के गम्भीर शब्द को सुन कर मयूरों को यह धोखा होता था कि यह रथ के पहियों की ध्वनि नहीं, किन्तु मेघों की गर्जना है। इससे वे अत्यन्त उत्कण्ठित होकर और गर्दन को ऊँची उठा कर आनन्दपूर्वक "केका” (मयूर की बोली) करते थे। उन षडज-स्वर के समान मनोहर केका-ध्वनि को सुनते हुए वे दोनों चले जाते थे। राजा को देख कर हिरनों और हिरनियों के हृदय में ज़रा भी भय का सञ्चार न होता था। उन्हें विश्वास सा था