आठवाँ सर्ग।
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अज का विलाप।
अज के हाथ में बँधा हुआ विवाह का कमनीय कला भी न खुलने पाया था कि उसके पिता रघु ने पृथ्वी भी, दूसरी इन्दुमती के समान, उसे सौंप दी। इन्दुमती की प्राप्ति के बाद ही पिता ने उसे पृथ्वी दे डाली। रघु ने उसी को राजा बना दिया; आप राज्य-शासन के झँझटों से अलग हो गया। अज के सौभाग्य को तो देखिए। जिसकी प्राप्ति के लिए राजाओं के लड़के बड़े बड़े घोर पाप—विष-प्रदान और हत्या आदि—तक करते हैं वही पृथ्वी अज को बिना प्रयत्न किये ही, मिल गई। आपही आप आकर वह अज के सामने उपस्थित सी हो गई। उसे इस तरह हाथ आई देख अज ने उसे ग्रहण तो कर लिया, पर भोग करने की इच्छा से ग्रहण नहीं किया—चैन से सुखोपभाग करने के इरादे से उसने राज-पद को स्वीकार नहीं किया। उसने कहा:—"मेरी तो यह इच्छा नहीं कि पिता के रहते मैं पृथ्वीपति बनूँ; परन्तु जब पिता की आज्ञा ही ऐसी है तब उसका उल्लंघन भी मैं नहीं कर सकता। इससे, लाचार होकर, मुझे पृथ्वी का पालन करना ही पड़ेगा।
कुलगुरु वशिष्ठ ने, शुभ मुहूर्त में, उसकी अभिषेक-क्रिया समाप्त की। अनेक तीर्थों से पवित्र जल मँगा कर वशिष्ठ ने उन जलों को अपने हाथ से अज पर छिड़का। ऐसा करते समय जलों के छींटे पृथ्वी पर भी गिरे। अतएव अज के अभिषेक के साथ ही पृथ्वी का भी अभिषेक हो गया। इस पर पृथ्वी ने, जल पड़ने से उठी हुई उज्ज्वल भाफ़ के बहाने, अपनी कृतार्थता प्रकट की। अज के सदृश प्रजारञ्जक राजा पाकर उसने अपने को धन्य माना।
अथर्ववेद के पूरे ज्ञाता महर्षि वशिष्ठ ने अज का अभिषेक-संस्कार विधिपूर्वक किया—अथर्ववेद में अभिषेक का जैसा विधान है उसी के अनुसार उन्होंने सब काम निबटाया। इस कारण अज का प्रताप, पौरुष और