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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१८०

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रघुवंश।

रक्खा। सुवर भी, उस पर धावा करने के इरादे से, शरीर के बाल खड़े कर के, पेड़ों से सट कर खड़े हो गये। इतने में इतने वेग और इतनी शीघ्रता से दशरथ के बाण छूटे कि उन्होंने सुवरों और उन पेड़े को, जिनसे सटे हुए वे खड़े थे, एकही साथ छेद दिया। सुवरों को मालूम ही न हुआ कि कब बाण छूटे और कब वे छिदे। छिद जाने पर उन्हें इसकी ख़बर हुई।

इतने में एक जङ्गली भैसा बड़े वेग से उस पर आक्रमण करने दौड़ा। यह देख राजा ने एक बाण खींच कर इतने ज़ोर से उसकी आँख पर मारा कि भैंसे के सारे शरीर को बेध कर, पूँछ में रुधिर लगे बिना हीं, वह बाहर ज़मीन पर जा गिरा। परन्तु पहले उसने उस भैंसे को गिरा दिया, तब आप गिरा—बाण लगते ही भैंसा गिर गया, बाण उसके गिर जाने के बाद उसके शरीर से बाहर निकला। यह, तथा पूँछ (पुङ्ख) में रुधिर का स्पर्श हुए बिना ही शरीर छेद कर बाण का बाहर निकल आना, दशरथ के हस्त-लाघव और धनुर्विद्या-कौशल का फल था।

राजा दशरथ ने अपने तेज़ बाणों से, न मालूम कितने, गैंडों के सींग काट कर उनके सिर हलके कर दिये, पर उन्हें जान से नहीं मारा। इन गैंडों को अपने बड़े बड़े सींगों का बड़ा गर्व था। वे उन्हें अपनी प्रधानता का कारण समझते थे। यह बात दशरथ को बहुत खटकी। अपने रहते उससे उनका अभिमान और प्रधानता-सम्बन्धी दम्भ न सहा गया। कारण यह था कि अभिमानियों और दुष्टों का दमन करना वह अपना कर्त्तव्य समझता था। इसी से उसने उनके अभिमान के आधार सींग काट डाले। वही उसे असह्य थे, उनकी दीर्घ आयु नहीं। उसने कहा:—"तुम लोग सौ नहीं, चाहे पाँच सौ वर्ष जीते रहो। मुझे इसकी कुछ भी परवा नहीं। परवा मुझे सींगों के ऊँचेपन के कारण उत्पन्न हुए तुम्हारे अभिमान ही की है। अतएव मैं उस ऊँचेपन को दूर किये बिना न रहूँगा"।

इसके अनन्तर उसने बाघों का शिकार आरम्भ किया। उसके शिकारियों का हल्ला-गुल्ला सुन कर बड़े बड़े बाघ गुफाओं से तड़पते हुए बाहर निकल आये और राजा पर आक्रमण करने चले। उस समय वे ऐसे मालूम हुए जैसे फूलों से लदी हुई सर्ज-वृक्ष की बड़ी बड़ी डालियाँ, हवा से टूट कर उड़ती हुई, सामने आ रही हों। परन्तु बाण मारने में दशरथ का अभ्यास यहाँ तक बढ़ा हुआ था और उसके हाथों में इतनी फुर्ती थी कि पल ही भर में उसने उन बाघों के मुँहों के भीतर सैकड़ों बाण भर कर उन्हें तूणीर सा बना दिया। उन्हें जहाँ के तहाँ ही गिरा कर, झाड़ियों