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रघुवंश।

गिरा कर भावी दुर्गति की सूचना सी दी। इस अशकुन ने मानों यह भविष्यद्वाणी की कि अब राक्षसों के बुरे दिन आ गये।

राजा दशरथ के पुत्र का जन्म होते ही आकाश में देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा कर आनन्द मनाया। जन्मोत्सव का आरम्भ उन्हीं ने किया। पहले देव-दुन्दुभियाँ बजीं, पीछे दशरथ के यहाँ तुरहियाँ और नगाड़े आदि। इसी तरह मङ्गल-सूचक उपचारों का आरम्भ भी देवताओं ही ने किया। पहले उन्हीं ने दशरथ के महलों पर कल्पवृक्ष के फूल बरसाये। तदनन्तर, कुल की रीति के अनुसार, राजा के यहाँ कलश, बन्दनवार और कदली-स्तम्भ आदि माङ्गलिक वस्तुओं के स्थापन, बन्धन और आरोपण आदि की क्रियायें हुईं।

रामादि का जन्म न हुआ था तभी दशरथ के हृदय में तत्सम्बन्धी आनन्द उत्पन्न हो गया था। इस हिसाब से दशरथ का हृदयानन्द राम-लक्ष्मण आदि से जेठा हुआ। जात-कर्म्म आदि संस्कार हो चुकने पर, धाय का दूध पीनेवाले राजकुमार, उम्र में अपने से जेठे, पिता के उस आनन्द के साथ ही साथ, बढ़ने लगे। वे चारों स्वभाव ही से बड़े नम्र थे। शिक्षा से उनका नम्रभाव—घी, समिधा आदि डालने से अग्नि के स्वाभाविक तेज की तरह और भी बढ़ गया। उनमें परस्पर कभी लड़ाई झगड़ा न हुआ। एक ने दूसरे का कभी विरोध न किया। उनकी बदौलत रघु का निष्कलङ्क कुल-ऋतुओं की बदौलत नन्दन-वन की तरह—बहुत ही शोभनीय हो गया।

चारों भाइयों में भ्रातृभाव यद्यपि एक सा था—भ्रातृस्नेह यद्यपि किसी में किसी से कम न था—तथापि जैसे राम और लक्ष्मण ने वैसे ही भरत और शत्रुघ्न ने भी प्रीतिपूर्वक अपनी अपनी जोड़ी अलग बना ली। अग्नि और पवन, तथा चन्द्रमा और समुद्र, की जोड़ी के समान इन दोनों जोड़ियों की प्रीति में कभी भेद-भाव न हुआ। उनकी अखण्ड प्रीति कभी एक पल के लिए भी नहीं टूटी। प्रजा के उन चारों पतियों ने—ग्रीष्म ऋतु के अन्त में काले बादलोंवाले दिनों की तरह—अपने तेज और नम्रभाव से प्रजा का मन हर लिया। उनकी तेजस्विता और नम्रता देख कर प्रजा के आनन्द की सीमा न रही। वह उन पर बहुत ही प्रसन्न हुई। चार रूपों में बँटी हुई राजा दशरथ की वह सन्तति-धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मूर्त्तिमान् अवतार की तरह—बहुत ही भली मालूम हुई। समुद्र-पर्य्यन्त फैली हुई चारों दिशाओं की पृथ्वी का पति समझ कर, चारों महासागरों ने, नाना प्रकार के रत्न देकर, जैसे दशरथ को प्रसन्न किया था वैसे ही पिता के प्यारे उन चारों राजकुमारों ने भी अपने गुणों से उसे प्रसन्न कर दिया।