और प्रेमपूर्ण बातें करके उसे शान्त करने की चेष्टा की। पर फल इसका उलटा हुआ। इन्द्र की भिगोई हुई भूमि जिस तरह बिल के भीतर बैठे हुए दो विषधर साँप बाहर निकाल दे उसी तरह, कैकेयी ने राजा के प्रतिज्ञा किये हुए दो वरदान मुँह से उगल दिये। एक से तो उसने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवासी बनाया और दूसरे से अपने पुत्र के लिए राजसम्पदा माँगी। इस पिछले वर का और कुछ फल तो उसके हाथ लगा नहीं; रँड़ापा अवश्य उसे भोगना पड़ा। इस वर का एक मात्र यही फल उसे मिला।
इस घटना के पहले, जिस समय पिता ने रामचन्द्र को आज्ञा दी थी कि वत्स! अब तुम इस पृथ्वी का उपभोग करो—उस समय राम ने रोकर पिता की आज्ञा से पृथ्वी का स्वीकार किया था। परन्तु पीछे से जब पिता ने आज्ञा दी कि—बेटा! तुम चौदह वर्ष वन में जाकर वास करो—तब रामचन्द्र ने उस आज्ञा को रोकर नहीं, किन्तु बहुत प्रसन्न होकर माना। पिता के रहते राजा होना रामचन्द्र को अच्छा नहीं लगा। इसीसे पहले उन्हें रोना आया। परन्तु वन जाने की आज्ञा सुन कर उन्हें इसलिए आनन्द हुआ कि मेरे पिता बड़े ही सत्यप्रतिज्ञ हैं और मैं उनकी आज्ञा का पालन करके उनकी सत्यवादिता निश्चल रखने में उनका सहायक हो रहा हूँ।
मङ्गलसूचक और बहुमूल्य रेशमी वस्त्र धारण करते समय, अयोध्या-वासियों ने रामचन्द्र के मुखमण्डल पर जो भाव देखा था वही भाव, वृक्ष की छाल का एक वस्त्र पहने और एक ओढ़ने पर भी, देख कर उनके आश्चर्य्य की सीमा न रही। विपदा में भी रामचन्द्र की मुखचा वैसीही बनी रही जैसी कि सम्पदा में थी। उनकी मुख-कान्ति में ज़रा भी अन्तर न पड़ा। सुख और दुःख दोनों को उन्होंने तुल्य समझा। न उन्होंने सुख में हर्ष प्रकट किया, न दुःख में शोक। पिता को सत्य की संरक्षा से डिगाने का ज़रा भी यत्न न करके, सीता और लक्ष्मण को साथ लिये हुए, रामचन्द्र ने दण्डकारण्यही में नहीं, किन्तु प्रत्येक सत्पुरुष के मन में भी एकही साथ प्रवेश किया। रामचन्द्र की पितृभक्ति देख कर सभी प्रसन्न हो गये। सभी के मन को रामचन्द्र ने मोह लिया।
रामचन्द्र के चले जाने पर दशरथ को उनका वियोग दुःसह हो गया। ये बेतरह विकल हो उठे। उन्हें अपने अनुचित कर्म्म के कारण मिले हुए शाप का स्मरण हो आया। अतएव उन्होंने शरीर न रखने ही में अपना भला समझा। उन्होंने कहा, बिना मेरी मृत्यु हुए मुनि के शाप का प्रायःश्चित नहीं हो सकता। यह सोच कर उन्होंने शरीर छोड़ दिया।