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रघुवंश।

बात जाने दीजिए, देवी-देवताओं तक ने उस पर अपना अनुग्रह दिखाया। वह था भी सर्वथा अनुग्रहणीय। अयोध्या में सैकड़ों बड़े बड़े विशाल मन्दिर थे। उनमें देवताओं की मूर्त्तियाँ स्थापित थीं, जिनकी पूजा-अर्चा बड़े भक्ति-भाव से होती थी। वे देवता, राजा अतिथि पर अपना अनुग्रह प्रकट करने के लिए, अपनी अपनी प्रतिमाओं के भीतर उपस्थित होकर वास करने लगे। उन्होंने कहा कि अयोध्या में राजा के पास रहने से, उस पर कृपा करने के बहुत मौक़े मिलेंगे; दूर रहने से यह बात न होगी। इसी से उन्होंने, अयोध्या में, अपनी मूर्त्तियों के भीतर ही रहने का कष्ट उठाया।

राजा अतिथि का राज्याभिषेक हुए अभी बहुत दिन न हुए थे। अभी उसके बैठने की वेदी पर पड़ा हुआ अभिषेक का जल भी न सूख पाया था। परन्तु इतने ही थोड़े समय में उसका प्रखर प्रताप समुद्र के किनारे तक पहुँच कर बेतरह तपने लगा। एक तो कुलगुरु वशिष्ठ के मन्त्र ही, अपने प्रभाव से, उसके सारे काम करने में समर्थ थे। दूसरे, उस धनुषधारी के शरों की शक्ति भी बढ़त बढ़ी चढ़ी थी। फिर भला, उन दोनों के एकत्र होने पर, संसार में ऐसी कौन साध्य वस्तु थी जो उस सिद्ध न हो सकती?

अतिथि अद्वितीय न्यायी था। धर्म्मज्ञों का वह हृदय से आदर करता था। धर्म्मशास्त्र के पारङ्गत पण्डितों के साथ बैठ कर, प्रति दिन, वह स्वयं ही वादियों और प्रतिवादियों के पेचीदा से भी पेचीदा अभियोग सुन कर उनका फ़ैसिला करता था। इस काम में वह आलस्य को अपने पास तक न फटकने देता था।

अपने कर्म्मचारियों और सेवकों पर भी उसका बड़ा प्रेम था। वे भी उसे भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। जो कुछ उन्हें माँगना हाता था, निःसङ्कोच वे माँग लेते थे। उनकी प्रार्थनाओं को प्रसन्नतापूर्वक सुन कर वह इस तरह उनकी पूर्त्ति करता था कि प्रार्थियों को शीघ्र ही उनका वाञ्छित फल मिल जाता था। अतएव उसके सारे अधिकारी, कर्मचारी और सेवक उसके क्रीतदास से हो गये। यही नहीं, प्रजा भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त हो गई। सावन के महीने की बदौलत नदियाँ जैसे बढ़ जाती हैं वैसे ही अतिथि के पिता कुश की बदौलत उसकी प्रजा की बढ़ती हुई थी। परन्तु पिता के अनन्तर जब अतिथि राजा हुआ तब उसके राज्य में, भादो के महीने में नदियों ही की तरह, प्रजा की पहले से भी अधिक बढ़ती हो गई।

जो कुछ उसने एक दफ़े मुँह से कह दिया वह कभी मिथ्या न हुआ। जो वस्तु जिसे उसने एक दफ़े दे डाली उसे फिर कभी उससे न ली।