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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/१०७

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परिच्छेद)
९९
रङ्गमहल में हलाहल।


चौदहवां परिच्छेद,

दोनों पाशिक!!!

छूट जाऊंगम के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खाक ऐसी ज़िन्दगी पर, तुम कहीं औं हम कहीं॥"

(नज़ीर)

समय आधीरात का है, चारों ओर अंधेरे के साथ ही साथ गहरा सन्नाटा भी छाया हुआ है, कभी कभी पहरे वालों के संग संग कुत्तों के भूकने को भयावनी आवाज़ सुनाई देती है और सारा संसार प्रकृति देवी के शान्तिमय कोड़ में सोया हुभा है । ऐसे समय में एक निगले कमरे में, जिसके सब दर्वाजे भीतर से बंद हैं और शमादान में मोमबत्ती जल रही है, सौसन और याक ब, दोनों एक दूसरे के कंधे पर अपने अपने सिर को रक्खे हुए हिचकियां यांध कर रों रहे हैं और रह रह कर एक दूसरे की सराबोर आंखों को पोंछ रहा है। एक घंटे तक उन दोनों की यही दशा रही, फिर सौसन ने सिसकते सिसकते कहा,-

"दिलबर ! मेरी बात मानो. बेगम को नाराज़ न करो और जो वह कहती है उसे बिला उन कबूल कर लो। प्यारे ! मैं हर हालत में तुम्हारी ही हूं। अगर दिन रात में एक लहज़ः भी मेरी आंखे तुम्हें देख लेंगी, तो ये इतने ही में आसूदः हो जायंगी और जानेमन ! खुदा जानता है कि मैं तुम्हें खुश व खुर्रम देख कर निहायत हो खुश हूँगी । गो, मैं फिर तुम्हें अपने सीने से न लगा सकंगी, मगर इससे क्या! मेरे दिल के अन्दर तो तुम्हारी ही तस्वीर खिची हुई है; बस उसोका ध्यान करके मैं अपनी ज़िन्दगी खुशी के साथ बिता दूंगी; इसलिये, प्यारे, ! तुम्हें मेरे सर की कसम , तुम मेरा कहना मानो और बेगम जो कहे, उसे क़बूल कर लो।"

याकूब,--"प्यारी, सौसन ! आज ये कैसी बातें मैं तुम्हारे हसे सुन रहा हूँ ! अफ़सोस ! तुमने मेरे इश्क़ को मुतलक न