पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/२८

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२०
(तीसरा
रज़ीयाबेगम।

बाग़े जहां का हमने बरसों किया तमाशा ।
शादाब फूल तुझसा ऐ गुलबदन न देखा॥
अहले वतन जो छूटा तो हमसे ऐसे छूटा।
गुरवत में आके हमने ख़्वाबे वतन न देखा।"

वह युवक योंही उसासें लेता, आंसू की बूंदे टपकाता, हाथ मलता, बार बार ऊपर आकाश की ओर देखता और रबिश पर टहलता हुआ एक ओर जा रहा था कि इतने ही में एक नौजवान पट्ठा. जो हाथ पैर से तैयार, देखने में नख सिन से सुन्दर, सुडौल और गोरे रंग का था, एक ओर से आपहुंचा और पहिले युवक के आगे खड़ा हो, बोला,-" सलाम, उस्ताद !”

उस्ताद,--"खुश रह ! प्यारे अयूब ! आज तू कहां था ? तेरा रास्ता देखते देखते जब बहुत देर हो गई तो मैने अकेले ही कसरत शुरू करदो।"

अभी जो युवक आया था, उसका नाम अयूब था; उसने कहा,- "उस्ताद ! अलस्सुबह उठकर मैं इसी जानिब को आरहा था कि कानों में डुग्गी की आवाज़ गई। बस फिर क्या था ! आप जानते ही हैं कि मुझमें अभी लड़कपन भरा हुआ है, चुनांचे मैं उस और लपका, जिधर से डुग्गी की आवाज़ आई थी।"

उस्ताद,-" ऐसा! आख़िर वह किस बात की मनादी थी!"

अयूब,-"सुलताना रज़ीया बेगम कल ताजपोशी का एक बड़ा भारी दर्बार करेंगी, इस वास्ते हर ख़ासो आम को यह इज़ाजत दी गई है कि जिसका जी जाहे, किले के अन्दर आकर जशन देखे।"

उस्ताद,—(ठंढी सांस भरकर) "ओफ़! उस पाक पर्वर- दिगार की क्या शान है कि गुलाम का खान्दान बादशाही करे और आमीर खान्दान गुलामी की जंजीर से मजबूर किया जावे।"

अयूब,-"बेशक, उस्ताद ! जब वह पिछलाज़माना याद आता है, कलेजे पर सांप लोट जाता है ; मगर सिवाय आह सर्द खैचने के और कुछ चारा नहीं चलता । ख़ैर, उस अम्र को अब छोड़िए और देखिए,-आज से लगातार कई दिनों तलक जो जो खेल तमाशे होंगे, उनकी यह फ़ेहरिस्त है; इसके देखने से मालूम हो जायगा कि किस दिन कौनसा तमाशा होगा।"

उस्ताद,--(फ़िहरिश्त ले कर ) " यह तूने कहांसे पाई?