सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद)
२१
रङ्गमहल में हलाहल।

अयूब,-"उसी डुग्गी वाले के साथ बांटने के लिये यह खच्चरों पर लदी हुई थी।"

उस्ताद,-"अज़ीज, अयूब! तेरा दिल चाहे तो तू जाकर तमाशा देखआना। क्योंकि तू जानताही है कि मेरी तबीयत ही अब इस काबिल न रही कि जिसमें जलसे तमाशे का शौक बाक़ी रहा हो!

अयूब,-" उस्ताद आपको मेरे सर की क़सम ! इस तमाशे को तो आप ज़रूर देखिए।"

उस्ताद,-"अज़ीज! बस, ज़ियादः ज़िद न कर । खैर,अगर तूने कसम दिलाई है तो एक रोज़, सिर्फ एकहीरोज़,-जिस आख़िरी रोज़, शेर और भैंसे की लड़ाई होगी, मैं तेरा साथ दूंगा।

अयूब,-"खैर, उतनाही सही । ओफ़ ! दुनियां में यह जुल्म !!! बुरा हो काफ़िर मुग़ल चंगेज़खां का; खुदा उसे ताक़यामत दोज़ख से नजात न बख़शे! अफ़सोस, सदअफसोस !!!"

उस्ताद,-"अयूब ! यह क्या बेवकूफ़ी है ! आख़िर, इस क़दर बुरा भला कहने से हासिल क्या है ! जब किस्मत बद आती है, तो किसीका कोई चारा नहीं चलता । वकौल शख़्से कि,-

"न तकरीर से तहरीर से, तदबीर से हो, हमतो कहते हैं ज़फर, जो के हो, तक़दीर से हो।”

अयूब,-"आपका फर्माना बजा है । किसीने क्या खूब कहा है कि,--

"होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है।"

उस्ताद,--"ऐसाही है।

अयूब,--"जब यह ऐसाही है और आप भी इसे क़बूल करते हैं तो फिर आप हरवक्त क्यों ग़मगीन रहा करते हैं और किसी जलसे तमाशे में शरीक़ नहीं होते?"

उस्ताद,--(हंसकर)“यह बहस बेबुनियाद है जब कि तबीयत का सारा जोश ही गर्दिश के सबब बुझ सा गया है तो फिर कुछ भी अच्छा नहीं लगता। पस, इससे यह कोई ज़रूरत नहीं है कि किसी शख़्स को कुछ बुरा भला कहा जाय । यह खुदा की शान है, उसकी मर्जी है, इस वास्ते जिसमें उसकी रज़ा हो, इनसान को उसीमें राज़ी रहना चाहिए।"