पांचवां परिच्छेद.
इश्क का आगाज।
"मकामे इश्क में शाहो ग़दा का एक रिश्ता है।।
जलेख़ा हर गली कूचे में बेतौक़ीर फिरती है॥"
(ग़ाफ़िल)
उसी समय एक बांदी शाहानः आदाब बजा लाकर अर्ज़ किया कि जहांपनाह ! वज़ीरआज़म दरे दौलत पर हाज़िर है और हुजूर की कदमबोसी हासिल किया चाहता है।"
इतना सुनतेही रज़ीया अपनी दोनों सहेलियों का हाथ पकड़े हुई बाग के एक सुहावने और सजे हुए कमरे में जाकर मसनद पर बैठ गई और लौंडी को हुक्म दिया कि,-"वज़ीर को यहीं हाज़िर कर।"
आज्ञा पाकर वज़ीर के बुलालाने के लिये लौंडी चली गई। बेगम के दहने बाएं, अदब से झुकी हुई, सौसन और गुलशन बैठी थीं, मसनद के पीछे तल्वारें, चमर और पंखे लिए हुई बीस से अधिक ख़वासिने खड़ी थीं, शमादान में काफूरी बत्तियांजल रहीथीं और सोने की अँगीठी में खुशबूदार मसाले जल रहे थे, जिनकी महक से सारा कमरा बसा हुआ था।
दोही मिनट के अन्दर वज़ीराज़म 'खुर्शदखा ' कमरे के दरवाज़े पर पहुंचा और वहीं से जमीन चूमता और शाही आदाव बजा लाता हुआ कमरे के अन्दर पहुंच, बेगम की मसनद से बीस हाथ दूर दस्तबस्तः खड़ा होगया। रज़ीया ने उसकी ओर देखा और कुछ नज़दीक आने और बैठने का इशारा किया, जिसके अनुसार वह फिर जमीन तक झुक और फर्शी सलाम करके अदब के साथ दोज़ानू बैठ गया। थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा, फिर रज़ीया ने पहिला सवाल जो उससे किया, वह यह था,--