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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/३७

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परिच्छेद)
२९
रङ्गमहल में हलाहल।

खुर्शद,-"हुजूर का फ़र्माना बजा है।"

रज़ीया,-"सिर्फ 'बजा है, के कहने से काम नहीं चलेगा; इस पेंचीदः मामले में खूब ग़ौर करलेना चाहिए, जिसमें आइन्दः कोई फ़तूर न पैदा हो।

खुर्शेद,-"दुरुस्त है; अगर इज़ाजत हो तो ताबेदार कुछ अर्ज़ करे।"

रज़ीया,-"वल्लाह ? अभी तलक तुम इज़ाजत के मुन्तज़िर हो! अजी,साहब ! जो कुछ कहना हो, दिल खोल कर कहो । अगर तुम्हारी राय काबिल पसन्द हुई तो उसकी मैं क़दर करूंगी, वर न उस पर बहस करके कोई दूसरी राय कायम करूंगी; मगर जो कुछ करना है, उसे कल के लिये उठा न रक्खूंगी।"

खुर्शद,-"दुरुस्त है; ख़ैर तो गुलाम की नाक़िस अक्ल में यह आता है कि कल किलेदार अल्तूनियां लोगों के ज़ाहिर में शाही दर्बार से भटिण्डे को वापस कर दिया जाय, मगर पोशीदः तौर से उसे यह समझा दिया जाय कि वह कुछ थोड़ी सी फ़ौज के सोथ किसी ठहराए हुए मकाम पर ठहरा रहे; इधर एक दिन मौका देखकर शव को हुजर के बिरादरान, जो कि यहां पर कैद हैं, बेहोश करके अल्तूनियां के नज़दीक रवानः कर दिए जायं। आगे जैसी हुजूर की मर्ज़ी।"

यह सुनकर थोड़ी देर तक रज़ीया कुछ सोचती रही; फिर उसने सिर उठाकर वज़ीर की ओर देखा और कहा,-

"बेशक, तुम्हारी राय क़ाबिल पसन्द है, मगर मैं यह चाहती हूँ कि फ़क़त अपने बड़े भाई रुकनुद्दीन फ़ीरोज़शाह को अल्तूनियां की निगरानी में, भटिण्डे के क़िले में कैद रहने के वास्ते भेज दूं, और वह उसी तीब से, जैसी कि तुमने अभी बतलाई है; और वाल्दः को मैं अपने रूबरू निहायतही ख़ातिरदारी के साथ रक्खूं । कुछ दिनों के बाद मुइज़्जुद्दीन और नासिरुद्दीन, जो कि यहां पर बतौर नज़रबंद के रक्खे गए हैं, किसी दूसरे क़िलेदार की निगरानी में क़ैद रहने के वास्ते, कहीं पर भेजे जायंगे; क्योंकि मैं ऐसा नहीं चाहती कि मेरे कुल बिरादरान किसी एकही शख्स के तहत में एकही जगह पर कैद किए जायं, जिसमें उन्हें आपस में मिलने, तरह तरह मनसूबे बांधने, आजाद होने की फ़िक्र में लगे रहने