पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०
(पांचवां
रज़ीयाबेगम।

और फ़साद बर्पा करने का अच्छा मौक़ा मिले। फिर अल्तूनियां ही का क्या भरोसा है कि वह कभी अपनी नीयत मेरी जानिब से न फेरेगा और हमेशः ईमानदारी से काम अंजाम देता रहेगा! इस वास्ते मैं यह नहीं चाहती कि किसी एकही शख्स़ के हाथ में अपने तई आप फंसा हूँ और बगावत करने का उसे ख़ासा मौका दूं।"

रज़ीया की इन दूर अन्देश बातों ने बज़ीर के होश दुरुस्त कर दिए और उससे सिवाय,-'बजा है, सही है, दुरुस्त है,-' इत्यादि वाक्यों के और कुछ भी कहते न बन पड़ा। निदान, यह बात तय पाई और तब रज़ीया ने दूसरी बात छेड़ दी। उसने कहा,-

"उन दोनों गुलाम, याकूब और अयूब के बारे में क्या किया गया?"

खुर्शद,-"हुजूर के हुक्म वमूजिब उन दोनों को शाही ख़ज़ाने से इनाम देदिए गए । गो, उन लोगों ने दबी जुबान यह उज़ पेश किया था कि,--'बंदा तो सुलताना बेगम साहिबा का गुलामही है, फिर बंदे ने कियाही क्या है, जिसके वास्ते इतनी दीनारें बख़्शी जाती हैं',-मगर उन दोनों को हुजूर के कहे मुताबिक इनाम देदिए गए। जिसकी यह रसीद है!"

यों कहकर वज़ीर ने उन दोनों गुलामों की रसीदें बेगम के सामने रखदी, जिन्हें शमादान की रौशनी में देखकर उसने वज़ीर के हवाले किया और यों कहा,-

"और क्या यह भी दर्याफ़्त किया गया कि दर हकीक़त वे दोनों हैं कौन ? क्योंकि उन दोनों के चेहरे से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि वे दोनों ज़रूर किसी आलीखान्दान के होंगे।"

खुर्शद,-"जीहां, जहांपनाह ! हुजूर का ख़याल बहुत ही सही है। इस बात के दर्याप्त करने पर पहिले तो वे दोनों घंटों तक रोया किए और कुछ न बोले; मगर फिर बहुत कुछ ढाढ़स देने पर उन लोगों ने अपना जो कुछ दर्दनाक किस्सा बयान किया, उसे हुजूर की खिदमत में अर्ज करता हूं,--

'याकूब और अयूब, जो कि आपस में उस्ताद और शार्गिद का रिश्ता रखते हैं, अपने को तातारी अमीरखान्दान में बतलाते हैं । अर्सा कई साल का हुआ कि डांकुओं के गरोह ने इनके यहां डांका डाला और इन दोनों को कैद कर किसी बुर्देफ़रोश के हाथ